बच्चों के लिए लिखना बाज़ार और सत्ता के खि़लाफ बोलने से कमत्तर नहीं है!
शोध-पत्र प्रस्तुति
02-03 फरवरी, 2015
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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02-03 फरवरी, 2015
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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राजीव रंजन प्रसाद
इक्कीसवीं सदी की चुनौतियां: बाल-साहित्य की संभावनाएं
सबसे पहले तो आप सबका यही सवाल हो सकता है कि आपको ऐसा लगता क्यों है या कि आप ऐसा किन आधारों पर कह सकते हैं-बच्चों के लिए लिखना बाज़ार और सत्ता के खि़लाफ बोलने से कमत्तर नहीं है! आजकल आदत-सी बन गई है, हर विचार को आँकड़ेबाजी और फार्मूलेबाजी के गणित अथवा समीकरण में फांस लेना, घसीट लेना। बकौल साहित्यिक भाषाविज्ञानी सदानन्द शाही-‘‘वैचारिक असहमति एक बात है और विचारों का दारिद्रय बिल्कुल दूसरी बात। जब विचारों को लेकर असहमति होती है, तो बहस होती है; लेकिन जहाँ विचारों की दरिद्रता होती है वहाँ छिछोरापन होता है।’’
मैं एक बात यहां स्पष्ट कर दूं कि बच्चों को लेकर, किशोरों को लेकर हमारे भीतर यह छिछोरापन भी कहीं नहीं नज़र आता है। यदि सिर्फ इसी विश्वविद्यालय के वैचारिक भूगोल की बात करें, तो मैंने बच्चों और किशोरों के लिए वह तड़प, बेचैनी, चिंता और चिंतन की तस्वीरें, रूप और आकृतियाँ नहीं देखीं। आयातीत पश्चिमी विद्वानों के नामोच्चारण और उल्लेख से मंच और मंचासीन लोगों को मैंने श्रोताओं के कानों को पटपटाते देखा है; लेकिन इस आह और अफसोस में किसी अकादमिक बुद्धिजीवी को मरते नहीं देखा कि इस बदलते समय में हमारे बच्चों का मानस कैसा तैयार हो रहा है? उनकी निर्मिति में देश, काल, परिवेश, परम्परा, संस्कृति और समाज का योगदान क्या और किस तरह का है? हमारे बच्चे जिस भाषा और लहजे में आजकल अपनी मांग और फरमाइश रखने लगे हैं, जिद और कभी-कभी तो अनचाहा आक्रमण तक करने लगे है; इस बोल-बर्ताव की मुख्य वजहें क्या हैं? क्यों बच्चों में एक ऐब समान रूप से लग चुकी है कि वे कार्टूनजीवी हो चले हैं, तो किशोरवय को परीक्षा से पहले ही ‘एग्जाम फोबिया’ होने लग जा रहा है?
हर चीज वह चाहे सामाजिक रूप से मान्य हो या अमान्य, उचित हो या अनुचित, नैतिक हो या अनैतिक; हमारे बच्चे और किशोर उनमें अंतर करना भूलते जा रहे हैं; पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की कद्रदानी, मोह और ममता में हमने अपना बचपन गुजारा है; परिवार के लिए व्यक्तिगत इच्छाओं-आकांक्षाओं को समेटते हुए हम नित अपनी सोच और स्वप्न में आगे बढ़े हैं; जबकि आज के नौनिहाल उसे ठेंगा दिखा रहे हैं; हमारे सभ्यतानुसरणी पाठ, अनुशासन और सहज मानवीय संस्कार तक को अपनी भाषा में ‘आउटडेटेड’ बता रहे हैं; गोकि कुछ समय पहले तक हम जिन पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों पर पेट के बल लोटते थे; वे अब हमारे बच्चों अथवा किशोरों को रास नहीं आ रहे हैं।
यह भीषण माजरा तकलीफदेह है; मैं आज इन्हीं प्रश्नों को केन्द्र में रख रहा हूँ; क्योंकि मेरा मानना है कि हम जो बड़े लोग हैं; प्रायः बच्चों की दुनिया में अपनी आत्मा के साथ नहीं, अपने पद, रुतबे और हैसियत के साथ दाखिल होना चाहते हैं। माफ कीजिएगा, हमारे इस दोहरे व्यवहार और व्यक्तित्व को देखकर बच्चे पहले ही सहम जाते हैं। लिहाजा, हमारे अपने ही बच्चों के साथ संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो बाद में चलकर ‘जैनरेशन गैप’ बन जाता है। हम उन पर गुमराह और अपसंस्कृतियों के शिकार होने का आरोप मढ़ते हैं; लेकिन अपने खि़लाफ कोई चार्जशीट दायर नहीं करते। ऐसा क्यों? मेरे लिए चिंता का मुख्य केन्द्रबिन्दु यही है।
मैं यह साफ कर दूँ कि बाज़ार और सत्ता के ख़िलाफ लगातार बोलने, मुहिम छेड़ने, आंदोलनरत रहने की बड़ी-बड़ी बातें अक्सर अकादमिक बुद्धिजीवी करते नहीं अघाते हैं; लेकिन जब हम अपने घर के बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो लाल-पिले होते हैं कि इस बार शत-प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाए? क्या अब हम अपने बच्चों की सोशल टीआरपी तय करने लगे हैं; उनकी योग्यता और काबिलियत का ‘मार्केट वैल्यू’ तैयार करने में भिड़ गए हैं; क्यों हमारे घर का बच्चा ‘क’ से कबूतर नहीं; ‘न’ से नल नहीं सीख रहा है; हमने कभी ध्यान दिया है? क्या हमने इस ‘वर्ड टरमिनेशन’ की आधुनिक संस्कृति पर कभी गौर किया है? जब हमारे बच्चे हमारी भाषा में ही रींज-भींज नहीं रहे हैं, खिल-पक नहीं रहे हैं, तो हुजूर, बड़े होकर वे हमको या आपको वृद्धाश्रम नहीं भेजेंगे, तो क्या आठों पहर आरती उतारेंगे?
अपने शोध-पत्र के अन्तर्गत इन तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं की स्थूल-सूक्ष्म पड़ताल करते हुए मैं स्पष्ट तौर पर यह बात कहना चाहता हूँ कि हमारा बड़ा होना, बड़ी बात करना और बड़े खतरों के लिए चिंतित होना वाजिब है; बाज़ार और सत्ता के खिलाफ मोर्चा लेना सही है; लेकिन जो बाज़ार और सत्ता हमारे बच्चों का बचपन छीन ले रही है; उनके भीतरी भाव और बोध को अभिव्यक्त कर सकने वाली सक्षम भाषा और उसकी सहज उच्चारणीयता को उनसे अलग कर दे रही है; जो उनके संज्ञान, समझ, चिंतन, कल्पना, स्वप्न आदि को पोसने वाली पारिवारिक घनिष्ठता, मेलजोल और बतरस पर ग्रहण लगा दे रही है; वैसी शिक्षा और शिक्षण-नीति के खिलाफ एकजुट होना; पूँजीवादी ताकतों और नवसाम्राज्यवादी विधानों की मुखालफ़त करने से कमत्तर नहीं है। विशेषतया, हिन्दीपट्टी के अधिसंख्य बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह कहकहे में विचार रखते हैं; कहकहे में अपने वैज्ञानिक उपलब्धियों को गिनाते हैं, कहकहे में साहित्य बखानते है और कहकहे की शैली में ही आत्ममुग्ध और अतिरेकपूण व्याख्यान देने का भी आदी हो चुके हैं। लेकिन, जब वही शख़्सियत अपने घर में प्रवेश करते हैं, तो अपने बच्चों को उसी टुच्चा अंग्रेजीपन को साधने और उसके रंग में हरसंभव रंगने की सलाहियत देते हैं; जिसका वे बाहर में विरोध कर रहे होते हैं; अपनी रचनात्मकता में जिन प्रवृत्तियों पर टूट पड़ रहे होते हैं। ऐसे दोहरे चरित्र का अभिनय किसी नाटक या ‘सोप अपेरा’ कहे जाने वाले टेलीविजन धारावाहिकों के लिए, तो ठीक है; लेकिन अपने बच्चों के माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में हरग़िज नहीं।
हर चीज वह चाहे सामाजिक रूप से मान्य हो या अमान्य, उचित हो या अनुचित, नैतिक हो या अनैतिक; हमारे बच्चे और किशोर उनमें अंतर करना भूलते जा रहे हैं; पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की कद्रदानी, मोह और ममता में हमने अपना बचपन गुजारा है; परिवार के लिए व्यक्तिगत इच्छाओं-आकांक्षाओं को समेटते हुए हम नित अपनी सोच और स्वप्न में आगे बढ़े हैं; जबकि आज के नौनिहाल उसे ठेंगा दिखा रहे हैं; हमारे सभ्यतानुसरणी पाठ, अनुशासन और सहज मानवीय संस्कार तक को अपनी भाषा में ‘आउटडेटेड’ बता रहे हैं; गोकि कुछ समय पहले तक हम जिन पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों पर पेट के बल लोटते थे; वे अब हमारे बच्चों अथवा किशोरों को रास नहीं आ रहे हैं।
यह भीषण माजरा तकलीफदेह है; मैं आज इन्हीं प्रश्नों को केन्द्र में रख रहा हूँ; क्योंकि मेरा मानना है कि हम जो बड़े लोग हैं; प्रायः बच्चों की दुनिया में अपनी आत्मा के साथ नहीं, अपने पद, रुतबे और हैसियत के साथ दाखिल होना चाहते हैं। माफ कीजिएगा, हमारे इस दोहरे व्यवहार और व्यक्तित्व को देखकर बच्चे पहले ही सहम जाते हैं। लिहाजा, हमारे अपने ही बच्चों के साथ संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो बाद में चलकर ‘जैनरेशन गैप’ बन जाता है। हम उन पर गुमराह और अपसंस्कृतियों के शिकार होने का आरोप मढ़ते हैं; लेकिन अपने खि़लाफ कोई चार्जशीट दायर नहीं करते। ऐसा क्यों? मेरे लिए चिंता का मुख्य केन्द्रबिन्दु यही है।
मैं यह साफ कर दूँ कि बाज़ार और सत्ता के ख़िलाफ लगातार बोलने, मुहिम छेड़ने, आंदोलनरत रहने की बड़ी-बड़ी बातें अक्सर अकादमिक बुद्धिजीवी करते नहीं अघाते हैं; लेकिन जब हम अपने घर के बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो लाल-पिले होते हैं कि इस बार शत-प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाए? क्या अब हम अपने बच्चों की सोशल टीआरपी तय करने लगे हैं; उनकी योग्यता और काबिलियत का ‘मार्केट वैल्यू’ तैयार करने में भिड़ गए हैं; क्यों हमारे घर का बच्चा ‘क’ से कबूतर नहीं; ‘न’ से नल नहीं सीख रहा है; हमने कभी ध्यान दिया है? क्या हमने इस ‘वर्ड टरमिनेशन’ की आधुनिक संस्कृति पर कभी गौर किया है? जब हमारे बच्चे हमारी भाषा में ही रींज-भींज नहीं रहे हैं, खिल-पक नहीं रहे हैं, तो हुजूर, बड़े होकर वे हमको या आपको वृद्धाश्रम नहीं भेजेंगे, तो क्या आठों पहर आरती उतारेंगे?
अपने शोध-पत्र के अन्तर्गत इन तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं की स्थूल-सूक्ष्म पड़ताल करते हुए मैं स्पष्ट तौर पर यह बात कहना चाहता हूँ कि हमारा बड़ा होना, बड़ी बात करना और बड़े खतरों के लिए चिंतित होना वाजिब है; बाज़ार और सत्ता के खिलाफ मोर्चा लेना सही है; लेकिन जो बाज़ार और सत्ता हमारे बच्चों का बचपन छीन ले रही है; उनके भीतरी भाव और बोध को अभिव्यक्त कर सकने वाली सक्षम भाषा और उसकी सहज उच्चारणीयता को उनसे अलग कर दे रही है; जो उनके संज्ञान, समझ, चिंतन, कल्पना, स्वप्न आदि को पोसने वाली पारिवारिक घनिष्ठता, मेलजोल और बतरस पर ग्रहण लगा दे रही है; वैसी शिक्षा और शिक्षण-नीति के खिलाफ एकजुट होना; पूँजीवादी ताकतों और नवसाम्राज्यवादी विधानों की मुखालफ़त करने से कमत्तर नहीं है। विशेषतया, हिन्दीपट्टी के अधिसंख्य बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह कहकहे में विचार रखते हैं; कहकहे में अपने वैज्ञानिक उपलब्धियों को गिनाते हैं, कहकहे में साहित्य बखानते है और कहकहे की शैली में ही आत्ममुग्ध और अतिरेकपूण व्याख्यान देने का भी आदी हो चुके हैं। लेकिन, जब वही शख़्सियत अपने घर में प्रवेश करते हैं, तो अपने बच्चों को उसी टुच्चा अंग्रेजीपन को साधने और उसके रंग में हरसंभव रंगने की सलाहियत देते हैं; जिसका वे बाहर में विरोध कर रहे होते हैं; अपनी रचनात्मकता में जिन प्रवृत्तियों पर टूट पड़ रहे होते हैं। ऐसे दोहरे चरित्र का अभिनय किसी नाटक या ‘सोप अपेरा’ कहे जाने वाले टेलीविजन धारावाहिकों के लिए, तो ठीक है; लेकिन अपने बच्चों के माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में हरग़िज नहीं।
माफ कीजिएगा, मैं हरिकृष्ण देवसरे, श्रीप्रसाद, कन्हैयालाल नंदन,प् रकश
मनु, दिविक रमेश, देवेन्द्र कुमार, क्षमा शर्मा, मनोहर वर्मा, शेरजंग गर्ग
जैसे ज़मीनी बाल-रचनाकारों की बात नहीं कर रहा हूं; क्योंकि इन्होंने बच्चों
के लिए विपुल मात्रा में लिखा ही नहीं है बल्कि ये लोग बच्चों के लिए
बच्चों-सा गोल-मटोल-बौड़म-चंचल दिल-दिमाग भी अपने भतर पोस-पाल कर रखते हैं। मैं जिनकी बात कर रहा हूं; वे चाहे अपनी दुनिया में कितने भी बड़े तोप हों; लेकिन अपने बच्चों के समाने उनका कद-काठी हमेशा ठिगना ही होता है। जबकि हमारा अक़्स बच्चों के मन-मस्तिष्क में हमेशा ममतामयी और वात्सल्यपूर्ण चेष्टाओं की घानी में पेराया हुआ होना चाहिए। हमारी वैचारिकता एवं अंतःदृष्टि आंतरिक आत्मबल और संकल्पशक्ति में इस कदर बिलोई होनी चाहिए कि हमारे बच्चों को वह सुस्वादु भी लगे और उन्हें सेहतमंद भी बनाएँ। इस मौके पर याद आते हैं, रामदरश मिश्र; वे कहते हैं; मानीखे़ज कहते हैं:
‘‘तू है बड़ा, बड़ा रह गया भाई, मुझको छोटा ही रहने दे
तू बहता है महासिंध में, मुझे नदी में ही बहने दे
तू है पंडित सार्वभौम करता है महाज्ञान की बातें
मैं हूँ परम घरेलू मुझको लोगों के सुख-दुख कहने दे।’’
तू बहता है महासिंध में, मुझे नदी में ही बहने दे
तू है पंडित सार्वभौम करता है महाज्ञान की बातें
मैं हूँ परम घरेलू मुझको लोगों के सुख-दुख कहने दे।’’
यहाँ इस शोध-पत्र के अन्तर्गत मेरा विनम्र प्रयास अपने बच्चों जिसमें किशोरवय भी शामिल है के सुखम-दुखम से आपसब को परिचित कराना है; उनकी दिक्कतदारियों और उनके उड़ानों पर भी विस्तारपूर्वक किन्तु ठोस और सम्यक् तरीके से विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करना है। मेरा ध्येय सिर्फ चिकनी-चुपड़ी बातों के साथ भाषा में करवट लेना नहीं है। मेरी तबीयत ऊँट की बजाय आदमी की तरह समकालीन चुनौतियों से रू-ब-रू होना है। दरअसल, बाज़ारवाद की विकृतियों तथा उपभोक्तावाद के निरंतर प्रभाव ने साहित्य और कला के विकासात्मक प्रतिमानों, मौलिक संवेदनाओं तथा मनुष्य और प्रकृति के रागात्मक सम्बन्धों को जिस तरह नष्ट किया है; वह एक भयावह सचाई है। इस सचाई के जार से पीड़ित समाज का हरेक वर्ग है। हमारे बच्चों का बचपन और उन्की कोमल भावनाएं भी बुरी तरह प्रभावित अथवा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ढंग से प्रताड़ित हैं। यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि ‘‘साहित्य कभी भी देशकाल निरपेक्ष नहीं होता। परम्परा, इतिहासबोध व आधुनिकता के समन्वय से कई पीढ़ियों और यथार्थ के कई युग एक-साथ मिलकर हमारे समय के यथार्थ का निर्माण करते हैं।''
अतः हमें यह देखना होगा कि यथार्थ के इस समिश्रण में हमारे बच्चों के हृदय भी शामिल हैं या कि नहीं। यदि हमारी वैचारिकी और चिंतन-परम्परा में उनका बोध और संज्ञान उपस्थित नहीं है, तो निश्चय जानिए कि आपकी पूरी 'कमेस्ट्री' ही किसी भयंकर भूल अथवा दोष का शिकार हो चुकी है; और इस त्रुटि को दूर किए बगैर हम चाहे इक्कीसवीं सदी में तकनीकी-प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर कितनी भी दूर चले जाने की कल्पना कर लें, योजना बना लें; किन्तु यह रथ टस से मस नहीं होने वाला है; क्योंकि भविष्य के घुड़सवार ये बच्चे और किशोर ही हैं, जिनके बारे में हम न तो पूरी संवेदनशीलता और मानवीयता बरत रहे हैं और न ही उनके ख़िलाफ चल रहे बाज़ार और सत्ता के सामूहिक कुचक्र का कोई मुकम्मल तोड़ निकाल पाने में ही सफल अथवा सक्षम हैं।
अतएव, जब हम इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के मद्देनज़र विचार करने बैठे हैं, तो हमें यह सबक अवश्य याद रखना होगा कि आगत समय में बाल-साहित्य की संभावनाएं अथाह-अनंत हैं; बाल-साहित्य की वाटिका में बेशुमार लहलहाते पौध अपनी रचनात्मक प्रतिभा और गरिमा के साथ गहगह करते दिखेंगे; बशर्ते हमारे ज़मीनी बाल-साहित्यकारों को जी-रह सकने की ज़मीन मयस्सर हो; उन्हें पनपने-बढ़ने के उचित सुअवसर मिले; और सबसे अधिक उन्हें आर्थिक चिंताओं के व्यक्तिगत कार्यभार से मुक्ति दिलाई जाए। आमीन!
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