Wednesday, March 18, 2015

शर्तिया सुरक्षा, पर क्यों?

18 मार्च को जनसत्ता में प्रकाशित विकास नारायण सिंह के आलेख ‘स्त्री-सुरक्षा की शर्तें’ पर राजीव रंजन प्रसाद द्वारा जनसत्ता को भेजी गईकी प्रतिक्रिया
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स्त्रियां आजादख्याल नहीं हो सकती। बिंदास-बेलौस बोल-वचन नहीं कह-सुन सकती। मर्दाना उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर मर्दों को गलियां या धिक्कार नहीं सकती। तो महानुभावजन, स्त्रियां कर क्या सकती हैं? ऐसी ही कुछ तफ्तीश करता आलेख ‘स्त्री-सुरक्षा की शर्तें’ शीर्षक से जनसत्ता(18 मार्च) में पढ़ा। विकास नारायण सिंह ने इस विषय की संवेदनशीलता को सही नाप के कपड़े दिखाएं हैं; वे कहते हैं-‘‘रोज सामने आने वाली यौन-हिंसा के विविध स्रोतों के अध्ययन से संभावित यौन अपराधी या संभावित यौन अपराधस्थल का कोई स्पष्ट खाका नहीं खींचा जा सकता।’’ स्त्रियों के साथ ऐसी दरिंदगी भरे करतूत को अंजाम देने वाले बलात्कारी प्रायः सिरफिरे, देहाती, निरक्षर, घोघा-बसंत, गंवार, शनकाह, उल्लू का पट्ठा, काला-कलूटा होते हैं। यदि आप ऐसा सोचते हैं, तो इस सोच को सही ठिकाने लगाइए। मेरी दृष्टि में, तो थाना और अदालत बलत्कृत स्त्री अथवा पीड़ित महिला के दुख को गाढ़ा करने का आगार हैं। वहां सामाजिक कुंठा की शिकार स्त्री देह की जगह ज़बानी पूछ-ताछ से असह्य पीड़ा झेलती है। ज़नाबे अली! ऐसे चोचलों की शासन-व्यवस्था और सुरक्षा किस काम की जो न्याय कम करता है; यातना सर्वाधिक देता है। हाल के दिनों में बीएचयू के घटनाक्रम साक्षी हैं, बाबा विश्वनाथ गवाह हैं कि प्रोफेसर जैसे ओहदे पर काबिज सुभिजनों ने परिसर की स्त्रियों के साथ कैसी घिनौनी हरकत की। क्या इन घटनाओं के अख़बार में छप जाने या ख़बरिया चैनल पर दिखा दिए जाने मात्र से स्याह सफेद हो जाएगा। क्या कुलगीत गाने से यह कुल-कलंक मिट जाएगा? जवाब दो हुक्मरानों! 

और घरेलू पहरेदार; क्या वे खुद इस तरह की अपराधिक गतिविधियों में रंगे हाथ नहीं पकड़े गए हैं? नहीं जानते, तो फिल्म ‘हाइवे’ देखिए। पता चलेगा कि शहरों की कारामाती ज़िन्दगी या महानगरों की चमचमाती सड़कों पर बड़े सलीके और बन-ठन कर चलने वाले पुरुषिया चेहरे भीतर से कितने घाघ और अनैतिक हैं। वे अपनी घरों में चाहारदिवारियां बड़े ‘हाइट’ की रखतें हैं; ताकि अन्दर की चीख-चीत्कार बाहर न आ सके; सामंती घरों के ढकोसले का सच उजागर न हो सके। स्त्री-उत्पीड़न के बाहरी मामले पर दिखावटी ‘कैंडिल मार्च’ निकालते लोगों को इस गुलाम मानसिकता के बारे में आखिर कौन बताए? 'खाप' और ‘आॅनर किलिंग’ के चर्चे, तब क्यों नहीं होते जब समाज में स्त्रियों का जीना मुहाल हो जाता है। वे हर दिन घुटन भरी अशालीन ज़िन्दगी जी रही होती हैं। उस समय तो कोई पितृसत्तात्मक समाज का पहरुआ अपने कपूत संतानों को मौत के घाट नहीं उतारता? उनका हुक्का-पानी बंद नहीं करता। घर से दर-ब-दर नहीं करता। सर जी! समाज की सारी सलाखें स्त्रियों के लिए हैं। सारी दश्वारियां उन्हीं के कपार पर है। उलाहना, प्रताड़ना और सही ढंग के परिधान-पोशाक पहनने को लेकर आलोचना उन्हीं की होती है; यह समाज अपने बदन-उघाड़ू नंगई पसारते बेटों की होश ठिकाने क्यों नहीं लगाते, जिनके इस ढंग के अजीबोगरीब ‘पिक‘स’ को माता-पिता सोशल साइटों पर ‘लाइक’ कर रहे होते हैं; सराह रहे होते हैं। यानी परिवार सारा शासनादेश स्त्रियों के खिलाफ जारी करता है जबकि अपने बिगड़ैल बेटों के किए पर परदा डालने के लिए ये ही ‘पैरेंट्स’ हरसंभव अध्यादेश जारी करते हैं।

थोड़ी बात, स्त्री-विमर्श की। स्त्री-चेतना के उन्मीलन एवं उद्विकास के नाम पर बौद्धिक-विमर्श स्त्री-निकटता प्राप्त करने का पुरुषवादी रवैया है। इस स्वांग में स्त्रियों को अपना मोर्चा ‘युद्धरत आधी आबादी’ सरीखा रखना होगा। उसे अपने तेवर और तरीके स्वयं ईजाद करने होंगे। उन्हें यह जानना होगा कि मिलीभगत अथवा साझेदारी के मार्फत घर-परिवार बसाया जा सकता है; लेकिन हक-हकूक की लड़ाई में अपना निशाना खुद लगाना होगा। अतः आज के देश-काल-परिवेश की स्त्री-सन्दर्भ में सबसे बड़ी जरुरीयात यही है कि स्त्री अपना विकल्प स्वयं बने। वह खुद अपना सही उत्तराधिकारी चुने। वह खुद तय करे कि उसका होना सबके होने की केन्द्रीय अन्तर्वस्तु है, नियामक और नाभिक है। लोकतंत्र में स्त्री ने अपने लिए माकुल जगह तलाश लिया, तो हम-आप-सब जो स्त्री के पक्षकार हैं, शुभचिंतक हैं...उसके आगे नतमस्तक-नतजानु होंगे। तब कोई बीबीसीनुमा उडविन डाॅक्यूमेंट्री बनायेगा, तो किसी की मजाल न होगी की उस अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर दे। यानी स्त्री सशक्तीकरण का सच्चा लोकराग स्त्रियों को स्वयं छेड़ना है, राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करना है। इस दुनिया में ‘आधी आबादी’ की शब्दावली में नहीं पूरी जगतजननी बन छा जाना है।

और नेताओं की बात। भारत में नेता-परेता इतने दुत्तलछन हैं कि उन्हें अपनी आंख में आंसू लाने के लिए भी ‘टाइमिंग’ की खोज होती है और किसी संवेदनशील मुद्दे पर सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए भी उम्दा जनमाध्यम की जरूरत। वे सांपनाथ और नागनाथ की तरह अपनी ही केंचुल में पेनाहे रहते हैं और हमेशा इस-उस ताक में रहते हैं जिससे कि उनका स्वार्थ सधे; राजनीतिक गोटी बीस पड़े। ऐसे कापुरुषों से यह उम्मीद रखना कि वे भारत में स्त्री-सुरक्षा के पक्ष में कुछ सार्थक परिणाम दे पाएंगे, बेमानी है। तो विकल्प एक सीधा-सादा यह है कि स्त्रियां अपना जनाधार और जनबल स्वयं तलाशे। वे किसी भी स्थिति में स्त्री उम्मीदवार को ही अपना जनाधिकार सौंपे। यानी जब तक भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश और सामंतशाही समाज में स्त्री-नेतृत्व का अपना अलग राग, स्वर, मांग, संघर्ष और राजनीतिक मोर्चा नहीं होगा; स्त्री सुरक्षा की शर्तें महज ढोंग है, छलावा है, पाखंड है, धोखा है। 
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राजीव रंजन प्रसाद, शोध-छात्र, हिन्दी विभाग, बीएचयू, वाराणसी।

Sunday, March 15, 2015

It's exam time!


Saturday, March 14, 2015

प्रिय देव-दीप,


आइए, इस बार समन्दर को अपने घर आमंत्रित करें; उसके साथ ‘कूल-चिल’ पार्टी-सार्टी करें। ऐश-मौज, धूम-धड़ाका। गंजी-बनियान पर सोए। क्योंकि यह आराम का मामला है और इसी रास्ते हमें सदा के लिए सो जाने के लिए तैयार रहना है, तो गुनगुनाइए...मचिंग ड्राइव!!’
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कैसे हो? आज भारत और जिम्बाॅम्बे के बीच क्रिकेट मैच है। चारों तरफ सुन-सन्नाटा है। सारा हो-हो या तो टीवी में क्रिेकेट स्टेडियम में हो रहा है या तो टीवी देखते उन चिपकू लोगों के बीच; जो अपने माता-पिता को रोज दी जाने वाली दवाइंयों के नाम, खुराक और समय भले न जानते हों; लेकिन वे हरेक खिलाड़ी का पूरा रिपोर्ट कार्ड जानते हैं और आपसी बातचीत के दौरान बघारते भी हैं। 

बाबू, किसी चीज के बारे में जानना या जानकारी रखना ग़लत नहीं है। जानकारी चाहे जिस भी विषय के बारे में हो उसके तथ्य, आंकड़े और उससे सम्बन्धित सूचनाएं बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं। मुझे तो हाईस्कूल में पढ़ा पाइथोगोरस प्रमेय भी याद है और हीरो का सूत्र भी। मुझे तो रसायन में पढ़ा इलेक्ट्राॅनों की निर्जन जोड़ी; मेंडलिफ की आवर्त सारणी, सिंदर का सूत्र और पारा का परमाणु भार और परमाणु संख्या भी याद है। जबकि इसे पढ़े ज़माने हो गए। अब पत्रकारिता के तकाज़े से पढ़ना और चीजों को सहेजना जारी है।

देव-दीप, कहना यह चाहता हूं कि आदमी के संस्कार को गढ़ने में जिन बुनियादी चीजों की भूमिका होती है; उनका महत्त्व कभी खत्म नहीं होता। बस उन्हें बरतने की तबीयत चाहिए। उन्हें उल्टने-पुलटने की नियत चाहिए होती है। यदि आप किसी चीज को वर्गीकृत करते हैं या स्तरीकृत, तो आप उसके गुण-धर्म पर विशेष ध्यान देते है; पर्याप्त महत्त्व भी। यह इसलिए कि सब एक-दूसरे से भिन्न हैं; लेकिन उनकी अभिन्नता एक साथ होने और बने रहने में है। उनका गुण-धर्म उन्हें उनकी उपयोगिता सिद्ध करता है। इसी तरह आदमी को अपने गुण-धर्म के अनुसार अपनी प्रकृति-स्वभाव और आचरण का प्रदर्शन करना चाहिए। प्रदर्शनप्रियता से परहेज आवश्यक है। आप राजा हो या रंक। प्रकृति की निगाह में सब जीव और प्रजाति मात्र हैं। सबकी प्राकृतिक रूप से मूलभूत आवश्यकता एक माफिक है। भाषा की भिन्नता से भावनात्मक लगबाव अथवा इंसानी राग का मूल्य नहीं बदल जाता है। संवेदना के शक्लोसूरत में तब्दीली नहीं आ जाती है।यह बस न भूलें हम। यदि मां-बाप मनमाफिक कपड़े-लत्ते नहीं पहनने  देते, क्या इस नाते वे बुरे हो जाएंगे? अभिभावक अपने बच्चों को बार-बार पढ़ने और कड़ी मेहनत करने की ताकीद कर रहे हैं; क्या इसके लिए वे दकियानुस हो जाएंगे? आखिर इसमें किसका हित और अंततः लाभ छिपा है। ऐश, मौज और खुशी क्या स्थायी रहने वाली चीज है? नहीं न! भारतीय दर्शन का नाभिकीय-लक्ष्य या केन्द्रीय उद्देश्य मानुष् अभिव्यक्ति का सत्य से साक्षात्कार कराना होता है। उस सत्य से जो ‘सत्य शिवं सुन्दरम्’ की लोक-मंगलकामना में अनुस्यूत है, व्याप्त है।

 आजकल चीजें सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से तेजी से रीत रही है; छीज रही हैं। अक्सर हम सारा दोष पश्चिम के मत्थे मढ़ देते हैं। उनका नाम ले-लेकर गरियाते हैं और अपनी वेद-वैदिक परम्परा के सार्वभौमिक सत्य और सार्वदेशिक रूप से उच्चस्थ होने का महिमागान करते हैं। हम शिव के जटा से गंगा के अवतरित होने का अर्थ उसके सदानीरा पावन-पवित्र और निर्मल होने की बात पर सही विश्वास कर लेते हैं। अपनी गलतियां कहां सुधारते हैं हम? कौन अपने को अपने से सवाल के घेरे में खिंचना चाहता है? कौन यह कहता है कि हर जगह पाप और अनाचारी है; क्योंकि हम सब खुद पापी और अनाचारी हैं। सभी को दूसरे को सत्यवान बनाने की पड़ी है। हम तो सिर्फ जबानी ढंग से सत्या का मंगलाचरण गाते-बखानते हैं; और अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। 

देव-दीप आने वाला समय अत्यंत कठिन है। हादसाएं और प्रकोप तेजी से बढ़ने वाली है। मौसम-चक्र बिगड़ने वाला है। लोग कठिन दौर में जीने के लिए मशक्कत कर रहे होंगे और बेरहम हो चुकी प्रकृति हमारे अपने ही किए का फल देती दिखाई देगी। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, इटली, जापान को अपनी ताकत और महाशक्ति होने का गुमान दिखाना होगा। उन्हें प्रकृति से मुकाबले में थेसिस-एंटी थेसिस तैयार करनी होगी। जब मनुष्य लगाातार हारता है, तो अविश्वासी हो जाता है। पराजय उसे आत्महीनता की ओर ले जाती है। ऐसे समय में ही भारतीय दर्शन का स्थायी मिज़ाज काम आता है। वह आपको ऐसे मौके पर अनुभवजनित और स्मृति-केन्द्रित संबल, प्रेरणा, और शक्ति प्रदान करता है। आत्महीनता की स्थिति में गौरव-गान नहीं गाए जा सकते हैं; लटके हुए चेहरे संग विजयगाान गाते हुए अपने मुख्य गंतव्य की ओर कदम नहीं बढ़ाया जा सकता है। उसके लिए तो जीवटता और जिजीविषा का होना पहली और आखिरी शर्त है। लेकिन हम इसे कैसे समझेंगे जब तक हम इन्हें जानने-समझने के लिए स्वयं को स्थिरचित्त नहीं कर लेते हैं; अपनी अनावश्यक तेजी पर अंकुश अथवा लगाम नहीं लगा लेते हैं।

प्रकृति गड़बडि़यां कम पैदा करती है; वह लगातार सुधार अधिक करती है। उसे मनुष्य की सत्ता से अति-मोह है; ऐसा नहीं है। लेकिन वह सबको बचा देखना चाहती है। वह सबकी उपस्थिति में अपने प्रेय-श्रेय का अभिवृद्धि मानती है। उसे हिंसा पसंद नहीं है; हत्याएं नहीं पसंद है। उसे नरसंहार और आपस में मार-काट कतई बर्दाश्त नहीं है। आजकल हिंसा, हत्या और आतंक का भयावह चेहरा सर्वत्र दिखाई दे रहा है। यह प्रकृतिजनित बुराई नहीं है; यह मानवजनित और आमंत्रित स्थिति है। इसके लिए मनुष्य मात्र जिम्मेदार है। लेकिन जब हमारे स्थूल-सूक्ष्म विवेक-विक्षोभ, ज्ञान, बुद्धि, संकल्पशक्ति आदी चुक जाते हैं, तो प्रकृति स्वयं ‘कमांड’ करना शुरू कर देती है। जिसने इस पूरी दुनिया को रचा है; उसके पास इस दुनिया को हर प्रतिकूल परिस्थिति से उबारने की ‘प्राग्रांमिंग’ भी आती है। आज प्रकृति इसी राह पर है। 

ध्यान रहे कि प्रकृति के पास कोई ‘आधार कार्ड’ नहीं होता है; न ही कोई चित्रगुप्त जैसा मिथकीय नायक। अतः प्रकृति का निर्णय कई बार अपनी वजन में नृशंस मालूम दे सकता है। वह वज्र बन सब पर टूटती है। यह कहर कई हिस्सों में जबर्दस्त उथल-पुथल और कोहराम मचाने का संकेत देते हैं; इस बरस भी ऐसा ही कुछ होने वाला है। खैर!

देव-दीप, अगले विश्व-कप में इस बार के विजेता कि प्रतिष्ठा दांव पर होगी; यह देखने के लिए अपना बचा होना भी जरूरी है। इसे अवश्य अपनी जेहन में रखना चाहिए। आमीन!

तुम्हारा पिता,
राजीव

Thursday, March 12, 2015

ये चतुर नार बड़ी होशियार...!

मौजूदा समय/दौर में पत्रकारिता विज्ञापन और ख़्बर में भेद-विभेद करना जानती है; इसकी वह लगातार घोषणा करती दिखती है!!!

जनजागरणशील हो रहे आजकल उच्च शिक्षित प्रबंधक/व्यावसायिक विज्ञापनदाता; क्योंकि

उन्हें देश की बेटियों, बहनों, बहुओं और मांओं की चिंता हे; फिक्र है...


और इसी तरीके/जुमले से समाचार-पत्र के सामान्य पृष्ठ पर ख़बर के रूप में काबिज़होना है.....

Wednesday, March 4, 2015


Monday, March 2, 2015

हिन्दुस्तान समाचारपत्र के प्रधान सम्पादक को प्रेषित अपनी असहमति का पत्र

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आज की भारतीय पत्रकारिता पाठकों को अंधा, बेवकूफ और गंवार मानती है; और खुद सत्यपाठ करते हुए झूठ में गोता लगाती है। घटिया राजनीति देश को कंगाल बनाती है जबकि विचारहीन और दृष्टिहीन पत्रकारिता पूरे देश को मानव-कंकाल में बदल कर रख देती है। वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं करती है। वह अवहेलना और नजरअंदाज द्वारा आपको हरसंभव खामोंश करने का कुचक्र रचती है। यह खेल भारतीय लोकतंत्र के लिए महंगाा साबित होने वाला है ; लेकिन बदलाव की लकीर भी भविष्य में ही खींची जाएगी। पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति का नमूना यह है कि संसद में प्रधानमंत्री कैंटीन में भोजन करते हैं, तो पार्टी कहती हैं इसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महाखबर होना चाहिए; और सभी पत्रकार इसे 24x7 में घंटों ख़बर बनाकर चलाते हैं...सरकार कहती है कि देश में भूखमरी की ख़बर आए, तो क्रिकेट मैच दिन भर चलाओ। हत्या-बलात्कार की अधिकता हो, तो उसकी जगह ‘सोप ओपेरा’ धारावाहिकों के कुछ रियल स्टंट और दूसरे रियलिटी शो दिखाओ। सरकार कहती है कि टेलीविजन माध्यम से पूरी दुनिया भारत की तस्वीर देखती है; इसलिए आज मीडिया में वही दिखाओ जो चित्ताकर्षक, मनोरंजक और आनंददायी हो। अख़बार और पत्रिकाओं को भी साफ शब्दों में कहा जा रहा है कि सच कहने-दिखाने से ज्यादा यह बताओ कि हम जो कह रहे हैं वही सच है; उतना ही सच है। पूरा विश्व आजकल इसी तरह के धंधेबाजी-सौदेबाजी पर चल रहा है। वे हर उस व्यक्ति को जो सच्चा है या सच्चा बने रहने की कोशिश में है, वे उसके उीएनए में बदलाव चाहते हैं। आज पूरे देश की शल्य-क्रिया जारी है। आप अपनी जान बचाइए।
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Rajeev Ranjan rajeev5march@gmail.com

AttachmentsFeb 27 (3 days ago)
to shashi.shekhar

परमआदरणीय शशि शेखर जी,
सादर अभिवादन!

‘‘आज से ठीक 32 साल पहले 20 साल का नौजवान अपने पिता का स्कूटर चलाता हुआ
हिंदी के एक बेहद सम्मानित अख़बार में किस्मत आजमाने के लिए पहुंचा।
अख़बार की उस इलाके में काफी धाक थी। इसके संस्थापकों ने राष्ट्रभाषा की
उन्नति और आजादी की लड़ाई में फैसलाकुन काम किया था। नौजवान का रोमांचित
होना लाजिमी था।, पर अख़बार में पहला दिन उस पर बहुत भारी बीता। पहले तो
सम्पादक जी ने उसे अपने कमरे के बाहरछह घंटे तक .ासद इंतजार
करवाया।...लम्बे इंतजार के बाद उन तक पहुंचे नौजवान के लिए उस दिन का यह
दूसरा आघात था।....जिससे युवक के मन में विचार कौंधा कि जो लोग खुद
सद्व्यवहार और सद्विचार से वंचित हैं, वे समाज को क्या दिशा देंगे? कुछ
भुनभुनाहटें भी कान से टकरा रही थीं कि हे भगवान! हिंदी पत्रकारिता का
क्या होगा?’’

यह अल्फ़ाज आप ही के हैं जिसे पढ़कर(23 सितम्बर, 2012) मैं आप पर मोहित हो
गया था। लगा, कुछ तो लोग हैं अब भी ज़माने में जो सच्ची नियत से खरी-खरी
बात करते हैं। आज उस युवक की जगह मैं हूं; क्योंकि वह युवक खुद उस
सम्पादक की जगह चला गया है। आज मैं आपसे कह रहा हूं कि-‘हाय राम, क्या
होगा इस हिंदी पत्रकारिता का जिस अखबार में ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं
प्रत्यायन परिषद’(नैक) लिखने की जगह अंग्रेजी में पूरा नाम लिखा-बताया जा
रहा है। किस गणनामीति और भाषाविज्ञान के सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर
आपलोग यह तय करते हैं कि अमुक अथवा फलानां  भाषिक शब्दावली को हिंदी में
रोमनीकृत कर परोसा जाना ही उचित, उपयुक्त है? यह तर्क कि इसे सबलोग समझ
लेंगे या यह हिंदी की तरह जटिल नहीं है; क्या आधार है आपके पास?

मीडिया, कंप्यूटर, इंटरनेट शब्दों के सामान्य समझ और प्रचलन में कहीं कोई
गिला-शिकवा नहीं है; लेकिन ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद’ की
जगह ‘नेशनल असेसमेंट ऐंड एक्रिडिएशन काउंसिल’ लिखना तो भाषागत गुलामी,
वर्चस्व और कोढ़ियापा हो गई जनाब!

मुझे उम्मीद है आप जवाब देंगे; क्योंकि मेरे भीतर प्रतिरोध अथवा विरोध
करने की पत्रकारीय लौ आप जैसे प्रतिबद्ध पत्रकारों ने लगाई है। यदि आप ही
इसे बुझाने के लिए सरकारी दमकल बुलाने लगे, तो वह अलग बात! वैसे मुझे आदत
हो गई है। जानते हैं, एक बार एक नामी-गिरामी विश्वविद्यालय में
साक्षात्कार के दौरान मेरे लिखे का तेवर तल्ख़ और कुछ अधिक तीक्ष्ण देख
साक्षात्कार लेने वाले सज्जन ने कहा कि-''यहां नियुक्ति हो जाएगी आपकी;
लेकिन आपको अदब और लिहाज के साथ अकादमिक प्रबंधक के आगे सलामी ठोंकनी
होगी; निर्देशित ढंग से अपने काम करने होंगे...तैयार हैं?'' मैंने कहा
कि-''माफ कीजिएगा, सिर्फ पचास हजारी मासिक तनख़्वाह के लिए मैं अपने ज़मीर
से समझौता नहीं कर सकता हूं और न ही इस तरह के किसी लुभावने प्रस्ताव के
सन्दर्भ में सोच तक सकता हूं।’’

परिणाम, तमाम योग्यता धरी रह गई। यह निर्णय मैंने तब लिया जब मैं और मेरा
परिवार घोर संकट के दौर से गुजर रहा था। सात साल के अपने बेटे की श्रवण
सम्बन्धी अपंगता की पहली बार जानकारी होने के बाद  मैं बुरी तरह
विक्षिप्त और हलकान-परेशान था। अंततः मैं अपनी दृढ़इच्छााशक्ति के बदौलत
उबरा; अपने अबोध बेटे से माफी मांगा कि मैं एक जवाबदेह पत्रकार पहले हूं;
तुम्हारा पिता बाद में।

जाने दीजिए, ये अपने-अपने किस्से हैं; लेकिन मुझे तो आपसे अपने प्रश्न का
माकुल जवाब चाहिए। उस अभिभावक से जो हकड़ कर लिखता है-‘‘सच कभी हारता
नहीं, इसएि जो लोग इस रास्ते पर चल रहे हैं, वे ही एक नई रहगुजर का
निर्माण करेंगें’’

शशि शेखर जी, कभी किसी जगह पर  मैं ग़लत भी हो सकता हूं; लेकिन इसे
दुरुस्त भी तो आप जैसे हमारे शुभचिंतक अभिभावकों को ही करना है। आमीन!

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
(वरिष्ठ शोध अध्येता)
जनसंचार एवं पत्रकारिता
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
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Friday, February 27, 2015

भारत में अकादमिक शोध: भाषा के बरास्ते शब्द-पद-वाक्य-सन्दर्भ-उद्धरण पसाने-परोसने का कागजी क्रिया-कर्म

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शोध-पत्र
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राजीव रंजन प्रसाद
स्पीक-कल्ट के तत्त्वाधान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया परचा

प्रिय मित्रो...,

मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि आप सबका भारत में किए जाने वाले अकादमिक शोध में दिलचस्पी है। अभी अमेरिका की स्काॅलर मैडिना ने अपना परचा पढ़ा। वह बनारस के शब्द, पद और शब्दावलियों के बनावट-बुनावट और लोकगत अर्थ-अभिप्रायों पर अपनी शोधपरक बातें रख रही थीं। शुक्र है, हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख जाने के बाद वह अब बनारसी गाली तक धड़ल्ले से देने लगी हैं; यह उनकी अदा है, अभिव्यक्ति का अपना अंदाज, जिसमें सबकुछ बेलाग-बेलौस था; किन्तु अश्लील और फुहड़ हरगिज़ नहीं। उन्होंने अपना परचा हिंदी में पढ़ा यह हमारे लिए गहरे तोष का विषय है। उनका इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त करना कि भारत में हिंदी बोलने वाले लोग अधिक हैं; पर विद्यालय अंग्रेजी के अधिक क्यों हैं? सचमुच यह हैरान कर देने वाला प्रश्न है। उनका बड़े हल्के अंदाज में यह कहना कि बनारस के संन्यासी भी ‘आई लव यू’ अंग्रेजी में कहना चाहते हैं; लेकिन अपनी भाषा में सहज-स्वाभाविक-नैसर्गिक प्रेम से वे औरों को सर्वथा वंचित रखने में ही जुटे रहते हैं। यह भी प्रश्न मन को बुरी तरह मथने वाला है।

मैडिना ने भारत में शोध की अकादमिक स्थिति के बारे में और जानने की इच्छा व्यक्त की है, तो इस सम्बन्ध में मैं शुरू में ही कह देना चाहता हूं कि आप दुःखी होंगी यदि मैं थोड़े व्यंग्यार्थ में यह कहूं कि यहां अकादमिक घोड़े बछिया पालते हैं; ताकि वे दूध पी सके और तंदुरुस्त रह सके, तो आपसबों को अप्रत्याशित ढंग से बेतहाशा हंसी आएगी और आपमें से कुछ मुझे बौड़म भी करार देंगे। खैर!

भारत में चिंतन-परम्परा अवनमन कोण में घटित होता है। अर्थात् उच्च-मूल्य से निम्न-मूल्य की ओर। यह आत्मप्रकाश अन्दर से बाहर की ओर रुख करता है, भाषा में प्रकट होता है। लेकिन वह जहां यानी हमारे मनोजगत यानी मनोमस्तिष्क में जन्म लेता है; वहां अनुभूतिजन्य भाव-संवेदना भीतरी उत्क्रमण द्वारा स्फोट के माध्यम से अर्थ निर्मित करते हैं; स्वर-तंत्रिकाएं उन्हें वागेन्द्रियों के माध्यम से भाषा के सांचे अथवा रूप में ढालती हैं; शब्दों के माध्यम से रूपाकार करती हैं; और अंत में वाक्यों में पिरोकर शब्दार्थ-दृष्टि से उन्हें पूर्णता प्रदान करती हैं। इस तरह हमारे आधुनिक भाषा-चिन्तकों और मानव-विज्ञानियों का मानना है कि व्यक्ति-मूल्य और सामाजिक-मूल्य में आवयविक सम्बन्ध है। इन्हें विकसित करने के लिए केवल साहस ही नहीं,; स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और स्पष्ट विचारधारा के लिए कोशिश आवश्यक है। सुविधामूलक लक्ष्यहीन अवसरवाद से मनुष्य का हित संभव नहीं है। ‘नया मूल्य’, ‘नवीन-मानव’ कहने मात्र से नयापन उपस्थित हो जाए, कतई संभव नहीं है। अतः आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है-पुराने के प्रति और नये के प्रति अवसरवादी दृष्टि ख़त्म की जाए। मुक्तिबोध की यह बात मैं बल देकर भारतीय अकादमिक जगत के बारे में कहना चाहूंगा जहां इस अवसरवादिता का आलम यह है कि सभी दृष्टांध हैं; लेकिन स्वयं को विश्वद्रष्टा घोषित करने में अहर्निश जुटे हैं; अधिसंख्य सफल हैं और कुछ पिच्छलग्गू सफल हो जाने की कगार पर हैं। 

भारत में ज्ञान का मूल लक्ष्यार्थ पुराने समय में रहा है-मनुष्य की मंगलकामना, उसकी हित-साधना। आज ज्ञान का अवलम्ब है-लोगों को मूढ़ बनाए रखना और उनकी मुर्खता के एवज में उनके हक-हकूक पर अपना अधिनायकत्व या एकाधिकायर कायम-काबिज करना। यह सब सायास हुआ है। मनुवादी जातियों ने ढेला भर मेहनत नहीं कि लेकिन गंगा नहाए, पुते फले वही। रामराज्य उनके ही घर-आंगन में आया। धन-धान्य से समृद्ध वही हुए। भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी जाति देखकर बनाए-चुने जाते हैं। यह अहमन्यता भारत की सामन्तशाही का शिकार रही सवर्ण जातियों में आज भी गहरे पैठी हुई है। यही लोग जब चुनाव के मौके पर आमजन के बीच जाते हैं; चुनावी दौरे या जन-सम्पर्क पर निकलते हैं, तो इनकी सदाशयता देखिए। ये उन जातियों के आगे भी चूकर-लोटकर पलगी/दुआ-सलाम करते हैं जिन्हें वे बाप-राजे से दुत्कारते और दरकिनार करते आए हैं।

भारत में झूठ बोलना पेशा से अधिक कला है। ऐसी कला जिसमें जादू, चमत्कार, सम्मोहन वगैरह होते हैं। आजकल भारत में चुनी गई सरकारें यह मान बैठी है कि अन्तरराष्ट्रीय जगत के लोग इतने बेवकूफ और बुद्धिहीन हैं कि उन्हें आसानी से अपने झांसे में लिया जा सकता है। इसी अवधारणा को आधार बनाकर भारत में एनजीओ का कारोबार तेजी से फला-फूला। इन्होंने अकादमिक शोध के समानान्तर जन-शोध और समाज-शोध करना शुरू किया। ये धीरे-धीरे ज्ञान के सभी अनुशासनों में फैले। आज आलम यह है कि विश्वविद्यालय का विद्याार्थी एनजीओ के सर्वे पर अपना शोध-प्रबन्ध लिखता है। उसकी अपनी प्रश्नावली शोध-परिकल्पना, उद्देश्य से बाहर है। अतः अकादमिक शोध भारत में एक कागजी कार्रवाई है। यह दीमकों को दिया जाने वाला दावत है। 

पिछले ही वर्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने लगभग चालीस हजार विज्ञान की किताबें जो स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण थीं; हिन्दी में अनूदित और प्रकाशित थीं; सिर्फ इस चलते एक सीलन-भरे गोदाम में दबाए रखा कि विज्ञान का ज्ञान निम्न जातियों तक पहुंच जाएगा, तो अनर्थ हो जाएगा। साठ के दशक में प्रकाशित इन पुस्तकों को इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में इसलिए अंततः निकाल-बाहर किया गया कि हिन्दी विभाग के उस हाॅलनुमा कमरे में एक साइबर-यूनिट स्थापित करना था; ताकि विश्वविद्यालय के विद्याार्थी पूरी दुनिया से जुड़ सकें। यह दोहरा बत्र्ताव उंची जातियां हमेशा अपने फायदे के हिसाब से करती हैं। उन किताबों को महीने भर मुफ्त में बांटा गया; ट्रैक्टर से एक से दूसरे जगह खुले में ले जाया गया। भार में इस तरह होते हैं अकादमिक ज्ञान का सृजन-विसर्जन।....


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(गल्प का कायाकल्प)