Friday, February 27, 2015

भारत में अकादमिक शोध: भाषा के बरास्ते शब्द-पद-वाक्य-सन्दर्भ-उद्धरण पसाने-परोसने का कागजी क्रिया-कर्म

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शोध-पत्र
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राजीव रंजन प्रसाद
स्पीक-कल्ट के तत्त्वाधान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया परचा

प्रिय मित्रो...,

मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि आप सबका भारत में किए जाने वाले अकादमिक शोध में दिलचस्पी है। अभी अमेरिका की स्काॅलर मैडिना ने अपना परचा पढ़ा। वह बनारस के शब्द, पद और शब्दावलियों के बनावट-बुनावट और लोकगत अर्थ-अभिप्रायों पर अपनी शोधपरक बातें रख रही थीं। शुक्र है, हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख जाने के बाद वह अब बनारसी गाली तक धड़ल्ले से देने लगी हैं; यह उनकी अदा है, अभिव्यक्ति का अपना अंदाज, जिसमें सबकुछ बेलाग-बेलौस था; किन्तु अश्लील और फुहड़ हरगिज़ नहीं। उन्होंने अपना परचा हिंदी में पढ़ा यह हमारे लिए गहरे तोष का विषय है। उनका इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त करना कि भारत में हिंदी बोलने वाले लोग अधिक हैं; पर विद्यालय अंग्रेजी के अधिक क्यों हैं? सचमुच यह हैरान कर देने वाला प्रश्न है। उनका बड़े हल्के अंदाज में यह कहना कि बनारस के संन्यासी भी ‘आई लव यू’ अंग्रेजी में कहना चाहते हैं; लेकिन अपनी भाषा में सहज-स्वाभाविक-नैसर्गिक प्रेम से वे औरों को सर्वथा वंचित रखने में ही जुटे रहते हैं। यह भी प्रश्न मन को बुरी तरह मथने वाला है।

मैडिना ने भारत में शोध की अकादमिक स्थिति के बारे में और जानने की इच्छा व्यक्त की है, तो इस सम्बन्ध में मैं शुरू में ही कह देना चाहता हूं कि आप दुःखी होंगी यदि मैं थोड़े व्यंग्यार्थ में यह कहूं कि यहां अकादमिक घोड़े बछिया पालते हैं; ताकि वे दूध पी सके और तंदुरुस्त रह सके, तो आपसबों को अप्रत्याशित ढंग से बेतहाशा हंसी आएगी और आपमें से कुछ मुझे बौड़म भी करार देंगे। खैर!

भारत में चिंतन-परम्परा अवनमन कोण में घटित होता है। अर्थात् उच्च-मूल्य से निम्न-मूल्य की ओर। यह आत्मप्रकाश अन्दर से बाहर की ओर रुख करता है, भाषा में प्रकट होता है। लेकिन वह जहां यानी हमारे मनोजगत यानी मनोमस्तिष्क में जन्म लेता है; वहां अनुभूतिजन्य भाव-संवेदना भीतरी उत्क्रमण द्वारा स्फोट के माध्यम से अर्थ निर्मित करते हैं; स्वर-तंत्रिकाएं उन्हें वागेन्द्रियों के माध्यम से भाषा के सांचे अथवा रूप में ढालती हैं; शब्दों के माध्यम से रूपाकार करती हैं; और अंत में वाक्यों में पिरोकर शब्दार्थ-दृष्टि से उन्हें पूर्णता प्रदान करती हैं। इस तरह हमारे आधुनिक भाषा-चिन्तकों और मानव-विज्ञानियों का मानना है कि व्यक्ति-मूल्य और सामाजिक-मूल्य में आवयविक सम्बन्ध है। इन्हें विकसित करने के लिए केवल साहस ही नहीं,; स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और स्पष्ट विचारधारा के लिए कोशिश आवश्यक है। सुविधामूलक लक्ष्यहीन अवसरवाद से मनुष्य का हित संभव नहीं है। ‘नया मूल्य’, ‘नवीन-मानव’ कहने मात्र से नयापन उपस्थित हो जाए, कतई संभव नहीं है। अतः आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है-पुराने के प्रति और नये के प्रति अवसरवादी दृष्टि ख़त्म की जाए। मुक्तिबोध की यह बात मैं बल देकर भारतीय अकादमिक जगत के बारे में कहना चाहूंगा जहां इस अवसरवादिता का आलम यह है कि सभी दृष्टांध हैं; लेकिन स्वयं को विश्वद्रष्टा घोषित करने में अहर्निश जुटे हैं; अधिसंख्य सफल हैं और कुछ पिच्छलग्गू सफल हो जाने की कगार पर हैं। 

भारत में ज्ञान का मूल लक्ष्यार्थ पुराने समय में रहा है-मनुष्य की मंगलकामना, उसकी हित-साधना। आज ज्ञान का अवलम्ब है-लोगों को मूढ़ बनाए रखना और उनकी मुर्खता के एवज में उनके हक-हकूक पर अपना अधिनायकत्व या एकाधिकायर कायम-काबिज करना। यह सब सायास हुआ है। मनुवादी जातियों ने ढेला भर मेहनत नहीं कि लेकिन गंगा नहाए, पुते फले वही। रामराज्य उनके ही घर-आंगन में आया। धन-धान्य से समृद्ध वही हुए। भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी जाति देखकर बनाए-चुने जाते हैं। यह अहमन्यता भारत की सामन्तशाही का शिकार रही सवर्ण जातियों में आज भी गहरे पैठी हुई है। यही लोग जब चुनाव के मौके पर आमजन के बीच जाते हैं; चुनावी दौरे या जन-सम्पर्क पर निकलते हैं, तो इनकी सदाशयता देखिए। ये उन जातियों के आगे भी चूकर-लोटकर पलगी/दुआ-सलाम करते हैं जिन्हें वे बाप-राजे से दुत्कारते और दरकिनार करते आए हैं।

भारत में झूठ बोलना पेशा से अधिक कला है। ऐसी कला जिसमें जादू, चमत्कार, सम्मोहन वगैरह होते हैं। आजकल भारत में चुनी गई सरकारें यह मान बैठी है कि अन्तरराष्ट्रीय जगत के लोग इतने बेवकूफ और बुद्धिहीन हैं कि उन्हें आसानी से अपने झांसे में लिया जा सकता है। इसी अवधारणा को आधार बनाकर भारत में एनजीओ का कारोबार तेजी से फला-फूला। इन्होंने अकादमिक शोध के समानान्तर जन-शोध और समाज-शोध करना शुरू किया। ये धीरे-धीरे ज्ञान के सभी अनुशासनों में फैले। आज आलम यह है कि विश्वविद्यालय का विद्याार्थी एनजीओ के सर्वे पर अपना शोध-प्रबन्ध लिखता है। उसकी अपनी प्रश्नावली शोध-परिकल्पना, उद्देश्य से बाहर है। अतः अकादमिक शोध भारत में एक कागजी कार्रवाई है। यह दीमकों को दिया जाने वाला दावत है। 

पिछले ही वर्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने लगभग चालीस हजार विज्ञान की किताबें जो स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण थीं; हिन्दी में अनूदित और प्रकाशित थीं; सिर्फ इस चलते एक सीलन-भरे गोदाम में दबाए रखा कि विज्ञान का ज्ञान निम्न जातियों तक पहुंच जाएगा, तो अनर्थ हो जाएगा। साठ के दशक में प्रकाशित इन पुस्तकों को इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में इसलिए अंततः निकाल-बाहर किया गया कि हिन्दी विभाग के उस हाॅलनुमा कमरे में एक साइबर-यूनिट स्थापित करना था; ताकि विश्वविद्यालय के विद्याार्थी पूरी दुनिया से जुड़ सकें। यह दोहरा बत्र्ताव उंची जातियां हमेशा अपने फायदे के हिसाब से करती हैं। उन किताबों को महीने भर मुफ्त में बांटा गया; ट्रैक्टर से एक से दूसरे जगह खुले में ले जाया गया। भार में इस तरह होते हैं अकादमिक ज्ञान का सृजन-विसर्जन।....


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(गल्प का कायाकल्प)

जो मिल रहा है, जैसा मिल रहा है, जितना मिल रहा है और जिस भी माध्यम में/से मिल रहा है; वही विश्व-ज्ञान है: प्रो. एसपी. त्यागराजन

आप यहां के शिक्षा-व्यवस्था से असंतुष्ट हो सकते हैं। यहां के कार्य-प्रणाली से असहमत हो सकते हैं। यह सब आपका व्यक्तिगत मामला है। हमारा काम बहुमत को लेकर चलना है। यदि आपके साथ कोई खड़ा नहीं है या कुछ लोग खड़े हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि आपसे हम सहानुभूति जताते हुए आपको सही ठहरायें। आज हमसब देश-सेवा के निमित सारा कार्य कर रहे हैं। लोगों को शिक्षित बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। कहीं किसी को एतराज नहीं है। आपके पेट में दर्द है, तो आप अपना इलाज कराएं; लेकिन यह न कहें कि सबके पेट में दर्द है और लोग विवशतावश बोल नहीं रहे हैं। यदि आप उच्च-शिक्षा में आकर और उसमें ज्ञान-कौशल सीखकर भी सच को सच नहीं कह पा रहे या अन्याय के खिलाफ विरोध नहीं कर रहे, तो यह सरासर ग़लती आपसबों की है। हमारा काम सब देखकर निर्णय करना है; कहा-सुना सच मानकर नहीं; हमें इतना ही करने की छूट है।

Thursday, February 26, 2015

पिता का पत्र पुत्र के नाम


प्रिय देव-दीप,

मैं चाहूं, तो हजारों पन्ने लिख सकता हूं। तुम्हें ब्लूमफील्ड के बारे में बता सकता हूं, तो किम्बल यंग के बारे में भी। यदि जानना चाहो, तो वैदिक-दर्शन, ज्ञान-मीमांसा पर भी बहुत कुछ तुम सबों के समक्ष परोस सकता हूं। यह सब कवायद इसलिए ताकि मैं तुमलोगों को विश्वास दिला सकूं कि मैं कुछ अच्छा करने की नियत, इच्छा और सामथ्र्य रखता हूं। लेकिन, देव-दीप, आजकल दुनिय फटाफट मुद्दे की बात चटपट करने की आदी हो गई है। बड़े होकर तुमसब भी हो जाओगे। व्यक्ति देश-काल-परिवेश से निरपेक्ष नहीं रह सकता है। उसे समय और परिस्थिति के अनुसार बदलना होता है। चाल्र्स डार्विन के अनुसार मनुष्य के बचे रहने की मुख्य शर्त यही है।

देव-दीप, लेकिन हजारों किताबों को पढ़ने के बाद और लोगों को जानने के बाद मैं जिस तरह भीड़ और रेले से स्वयं को बचा रख सका हूं, तो सिर्फ इस कारण कि मैं अपने परिवार, माता-पिता, रिश्ते-नाते से खूब-खूब प्यार करता हंू। तुम देखते हो न कि जब मेरे सर में दर्द होता है, तो तुम्हारी मम्मी कैसे सर में तेल घसती है। उसी तरह तुम्हारी मम्मी का पैर दिन भर की थकान से टूट या टटा रहा होता है, तो मैं भी उसकी थोड़ी-बहुत मदद करता हूं। वैसे मेरे अंदर इन सब से बचने की चतुराई बहुत रहती है; लेकिन मन में खोट नहीं है।

देव-दीप, स्त्रियां मनुष्य को पैदा ही नहीं करती हैं; बल्कि वह उनके साथ ताउम्र नाभिनाल की तरह जुड़ी रहती हैं। जैसे तुम्हारी दादाी मुझसे बात करते हुए रोने लगती है या फिर तुम्हारे दादा तुम्हारे खांसने मात्र से विचलित हो जाते हैं। देव-दीप, भारतीय समाज कुल बुराइयों के बीच आपसदारी के संवाद और सोहबत में जीता है। उसका हासिल बड़ा से बड़ा तर्जुबा लोक-समाज की पैदाइश होती है। इसके लिए मुझे इंटरनेट या गूगल पर जाने की जरूरत नहीं है। गूगल पर, तो ‘मैंगो’ मतलब अमरुद लिख दो, तो भी सही और सेव लिख दो, तो भी ठीक। वह बालू का कण सरीखा एक ही जगह असंख्य की मात्रा में मिलता है। सूचना, तथ्य और आंकड़ा के रूप में उड़ियाता है; लेकिन उसका महत्त्व तब तक नहीं है जब तक कि उसे किसी सन्दर्भ-विशेष से न जोड़ा जाए। 
देव-दीप, इन नौटंकीबाज मशीनी आइटमों के लिए अपनी असल ज़िंदगी खपाने की जरूरत नहीं है। हमें अपने जीवन में कुछ मंगलकारी मूल्य निर्धारित करने चाहिए। ऐसे सांस्कृतिक-पारम्परिक मूल्य जिससे सबका भला हो; किन्तु किसी का अहित न हो। इस दुनिया में सब अपने को विशेष मानते हैं। उन्हें अपनी काबिलियत पर गुमान और अहंकार होता है। लेकिन, वे यह नहीं सोचते कि जब तक यह भौतिक देह है, तभी तक इस अहंकार को आश्रय हासिल है। तभी तक आप प्राइम-मिनिस्टर हैं, तो देश के राष्ट्रपति। चित्ता जलने के बाद लोक में आपकी महत्ता और अर्थवत्ता कितनी है; इससे आपके बड़े और प्रतिष्ठाशाली होने का पता चलता है।

देव-दीप, आजकल कुछ दुत्तलछन लोग महात्मा गांधी की बुराई करते हैं, तो मदर टेरेसा पर छींटाकशी तक करने से नहीं चूकते हैं। लेकिन इन दोनों के सामने सायास-अनायास किसका सिर नहीं झुक जाता है। यह है असली वजूद, ताकत। अतः सब बातों के मूल में मुख्य बात यही है कि हमें अपने को पहचानना आना चाहिए। अपने को सामाजिक अनुशासनों के अनुसार बरतना आना चाहिए। नकलचियों, पाखंडियों, स्वांगधारियों के चेहरे खुद-ब-खुद बेनकाब हो जाते हैं। लेकिन सच्चा आदमी चाहे कितने भी मामूली जीवन-स्तर पर क्यों न जीता है; उसका सिर स्वाभिमान और आत्मसम्मान से हमेशा पुलकित रहता है। आपदोनों भी अच्छी पुस्तकों का संगत करना, उनका अध्ययन करना और दूसरों को बदलने को कहने से पूर्व अपने अंदर स्वेच्छापूर्वक, किन्तु सप्रयास उपयुक्त बदलाव जरूर लाना।

देव-दीप, मेरा साथ आपलोगों संग और कितने दिन रहेगा, आज कहना मुश्किल है। हो सकता है कि मैं प्रकृति के काम के लिए कहीं और नियुक्त कर दिया जाउं। लेकिन इस जीवन में, इस काया में, इस चेतना में मुझे आपलोगों का असीम प्यार और भरपूर दुलार मिला है; यह मेरी सर्वोत्तम उपलब्धि है।

अंतिम बात, जो मैंने इस दुनिया के पुरुषार्थियों से सीख व जान पाया; वह आपदोनों के भी बड़े काम की है। यथा:

1. जनसमूह संग हिल-मिल बोलो, स्वत्व न खोओ।: राबर्ट फाॅस्ट
2. हर कोई दुनिया बदलना चाहता है, लेकिन कोई खुद को बदलने के बारे में नहीं सोचता। : लियो टाॅलस्टाय
3. भारतीय दर्शन एवं चिन्तन के मुताबिक मानुष जीवन में दो चीजें अधिकतम महत्त्व रखती हैं: 
Will to live & Learn to live.


सस्नेह
राजीव

वित्त मंत्री अरुण जेटली के नाम ख़त

प्रिय वित्त मंत्री जी,
भारत सरकार।

 26 फरवरी, 2015
वाराणसी

मान लीजिए आपको भारत की जगह अमेरिका में गुजर-बसर करने के लिए जगह दे दी जाए। वहीं से मंत्री बनने और राजनीति करने का मौका, तो आप स्वीकार करेंगे? क्या दिक्कत है कि आपका पूरा सरकारी महकमा ही अमेरिका के किसी दिव्य शहर में शिफ्ट कर दी जाए, तो हम भारतीयों को कितना गर्व होगा यह कहते हुए कि हमारे नेता अपनी ज़बान का ख़तना कराकर अंग्रेजी बोलने में ही दक्ष और प्रवीण नहीं हैं; बल्कि वे वैश्विक होती राजनीति का मिसाल पेश करने के लिए देशगत सीमाओं और परिधियों को त्यागकर पश्चिमी दुनिया के बेताज बादशाह कहे जाने वाले अमेरिका में जाकर अपना संचालन-केन्द्र स्थापित कर चुके हैं। माननीय प्रधानमंत्री की तो वहां पहले से ही जय-जय है। आपसब का भी वहां ‘शिफ्टिंग हो जाएगा, तो सबसे बड़ा फायदा हम भारतवासियों को यह होगा कि हम आए दिन होने वाले राजनीतिक तमाशों और नौटंकियों से बच जाएंगे। हमारे अख़बार राजनीतिक ख़बरों के बटोर से गजमजाया नहीं रहेगा। भारतीय ख़बरिया चैनलों पर अटपटी और घिसी-पिटी राजनीतिक चर्चाएं बंद हो जाएंगी।

इससे आपको भी कुछ विदेशी संस्कार, रहन-सहन, जीवन-शैली अथवा रंग-ढंग सीखने का सुअवसर मिल सकेगा। आप वहां की आर्थिक समृद्धि और सामाजिक सम्पन्नता को देखकर अपना हिया जुड़ाएंगे और अपने मुल्कवाासियों के उद्धार के लिए शत-प्रतिशत प्रयत्न करेंगे। आप वहां रहकर यह देख पायेंगे कि क्या और कौन से वे कारक और कारण है जिनकी वजह से वहां के विश्वविद्यालय टाॅप 200 में गिने जाते हैं;  जबकि हर साल हमारे देश में वैसे एक भी विश्वविद्यालय न होने का रोना रोया जाता है। आप वहां से भारत के लिए जो अस्त्र-शस्त्र और हथियार खरीदते हैं या सैन्य-व्यापार करते हैं; उसकी भी जरूरत नहीं होगी; क्योंकि आपके सरकार की बराक से इतनी आत्मीयतापूर्ण और नजदीकी लगाव व मित्रवत् सम्बन्ध है कि भारत के साथ की गई कोई भी गुस्ताखी या ज्यादती को अमेरिका अपने साथ की जाने वाली धृष्टता मानकर आपका अधिकतम सहयोग, समर्थन करेगा। तो बताइए कि आप जाना चाहेंगे? देश की जनता से आपको और आपकी सरकार को वहां भेजने के लिए जनमत इक्ट्ठा कराने का हम पावन-कार्य राजी-खुशी करने का हरसंभव प्रयास करेंगे।

नहीं, क्यों नहीं? अब आप दर्शन मत बघारिए कि देश की जनता से आपको बेइंतहा लगाव और प्यार है। अरे महराज! देशहित में विकास, गरीबों के लिए विकास आदि आपलोगों के जुमले गरीबों और आम-आदमी पर शोषण के लिए ही मुफ़ीद जान पड़ते हैं। आम-आदमी की ज़मीन पर सरकारी सहमति के बरास्ते कारपोरेट कंपनियां काबिज होंगी; वे अपना मनोनुकूल कारोबार और खरीद-फ़रोख्त करेगी; कमीशनखोर और भ्रष्ट नेताओं का जेब भरेगी; उनकी आय और संपत्ति की घोषणा में लखपति होते हुए करोड़ों का श्रीवृद्धि कराएगी....हाय! पड़े इस नियत को, बीमारी लगे इस सोच को, शमशान जाए यह बुद्धि-विचार-भावना; बशर्ते मैं कतरा भर सच के सन्दर्भ में यह सब शापित कह रहा होउं।

मंत्री महोदय,भारतीय जनता आप जैसे नेताओं से तंग आ चुकी है जो अपनी सुविधानुसार भूमि-अधिग्रहण के मसले पर टीका-टिप्पणियां किया करते हैं। आपकी अपनी ज़मीन जाती और आप सरकार की पीठ ठोंकते रहते, तो न देखते। उस समय आप भी छाती कूटते हुए सरकार को तरह-तरह से गरियाते, उसकी भत्र्सना और थू-थू करते। यही नहीं आप की ज़मी भी इस तरह पैसों की नोंक पर लुटी जाती, तब आपकी विद्वता और समझदारी का असली रूप-अर्थ देखने में आता।

छोड़िए मंत्री जी, आज आपको संसद में हिन्दी में बोलते देख हर्षित हुआ और मुग्ध भी। यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई कि हमारे देश के वित्त मंत्री को हिन्दी बोलने और शब्द ठीक-ठीक उच्चारण करने आता है।  आप चाहे जिस हीनता-बोध से न बोलते हों; लेकिन यह जान जाइए कि आपके माननीय नरेन्द्र मोदी जी यदि मजाकवश भी कुछ महीने हिन्दी में न बोलें, तो जनता उन्हें उनके साथ ऐसे ही व्यवहार करेगी; जैसी सजा आज की तारीख में कांग्रेस भुगत रही है।। लीजिए यह कविता पढ़िए-

‘‘आज का पढ़ा या लिखा
पढ़ता या लिखता यह है
काम का बहाना किए
सड़कों पर दिखता यह है
आलम में डूबा हुआ
साहब या सूबा हुआ
केवल दंभ भरता है
मेहनत से डरता है
रोना किसान के मजदूर के दुखड़े पर
शीशे में हजार बार देखना मुखड़े को
काम से, पसीने से, कोई पहचान नहीं....''


ओह! माफ कीजिएगा; मैं भूल गया कि आपलोग तो हमेशा अपनी कहने और सुनाने वाले हैं; सो आपसबों के सामने यह सब कहना अपनी तमीज की थैली में पानी भरना है। खैर!

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद

राहुल की छुट्टी पर बड़ी ख़बरे लांच करना बकलोल पत्रकारों की बेशर्मी का उम्दा चेहरा


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जनाब! अधपकी हुई रोटी जनता थाली से बाहर कर चुकी है; अब वह गंगा नहाए तो उससे क्या?
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राजीव रंजन प्रसाद



भारतीय पत्रकारिता अपनी बेहयाई से बाज नहीं आ सकती है; और कारपोरेटी पूंजीपतियों के दुमछल्ले पत्रकार उसमें शरीक होने से। ताजा मामला राहुला गांधी के छुट्टी पर जाने का है। हिन्दीपट्टी का सम्मानित अख़बार ‘जनसत्ता’ तक इस पर ताबड़तोड़ ‘बाॅटम स्टोरी’ देने में जुटा है। जबकि कायदे से यह ख़बर होनी ही नहीं चाहिए। कांग्रेस के जिस कथित युवराज को जनता ने लोकतांत्रिक जनादेश के अपने एकतरफा निर्णय से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बिस्तर ही गोल कर दी; वह राहुल गांधी संसद में रहे या दस जनपथ में; नगर-भ्रमण करें या विदेश-यात्रा; यह जनता के लिए महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मामला-मसला नहीं है। हां, बजट-सत्र के दौरान उनकी संसद में अनुपस्थिति को लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है; लेकिन वह भी इतने कोहराम की मांग नहीं करता है। दरअसल, भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर चारो तरफ से घिरी मोदी सरकार इस बजट सत्र को ऐसे ही ‘नाॅनसेंस’ ख़बरों के महाकवरेज के द्वारा गुमा देना चाहती है। वह नहीं चाहती है कि उसके फैसले विवाद में घसीटे जाए या उसे गंभीर जवाबतलबी का सामना करना पड़े। लेकिन, यह मानी हुई बात है कि जब नंगापन अत्यधिक हो, तो परदे की लम्बाई-बड़ाई घटाने-बढ़ाने से ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है। यह सरकार अपनी कारपोरेटी नंगई छुपाना चाहती है जिसे पूंजीपतियों के शातिर जासूसों/पत्रकारों ने तार-तार कर दिया है। यानी आम-जनता राहुल गांधी को नहीं खोज रही है। इसे ख़बर की छननी में दलाल पत्रकारों की खेप ढूंढ रही है। सरकारी एजेण्ट बन चुके ये पत्रकार पूंजी के दलाल हैं इसीलिए वे मीडिया-सेक्टरों में टिके हुए हैं; यदि न होते, तो जनता की तरह सड़क से संसद तक लड़ना-भिड़ना पड़ जाता। 

मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि उसके पास अक्ल की भारी कमी है। ऐसे में वह अक्लमंदों की खरीद-फ़रोख़्त को सही मानते हुए उनसे हरसंभव सौदेबाजी करती है। वह हमेशा अपने को केन्द्र में ‘फोक्सड’ रखना चाहती है। लिहाजा, जनता से और जनता को किए वादे से वह दिन-ब-दिन दूर होती जा रही है। रेडियो पर ‘मन की बात’ सुनाने का उनका तरीका भी अब फुस्स साबित होने लगा है। युवा पीढ़ी रोजगार मांग रही है; किसान ऋणों से छुटकारा चाहते हैं; बाज़ार महंगाई से बरी होना चाहता है; पुलिस तबदाले के तनाव और रस्साकसी से मुक्त होने की चाह में है; शिक्षा-व्यवस्था अपने भीतर आमूल बदलाव लाने की रट ठाने हुए है....;  और भी ऐसी ही अनगिनत मांगे जिनके बारे में सरकार को सोचने की फुरसत नहीं है; जबकि 24 घंटे में मामुली घंटे सोने का दावा और प्रचार गांठने वाली मोदी-सरकार और उनका मंत्रिमण्डलीय कुनबा ट्विटर और अन्य सोशल साइटों पर उफनाए हुए है। आने वाले दिनों में ये हवा-हवाई ‘जम्पिंग-जेट हवा में ही रह जाने वाले हैं। ‘हर हर मोदी’ को महादेव यानी बाबा विश्वनाथ भी नहीं बख़्शेंगे; क्योंकि उन्होंने उनकी जटा में विराजमान माता गंगा को साफ, स्वच्छ, निर्मल और सदानीरा बनाने का जो वादा किया था और जीत जाने के बाद जो संकल्प दुहराया था; उससे भी वह बेईमानी करने से नहीं चूके।  अब वे कह रहे हैं कि हमारी पार्टी में शुद्ध मन-विचार वाले नेता नहीं हैं। प्रश्न है कि ‘जात न पूछै साधु की...’ रट्टा मारने वाले इस मुल्क की ब्रह्मज्ञानी जातियां अपनी शुद्धता, शुचिता और सुपराक्रमीयता का शील कहां और कैसे भंग कर चुकी हैं।

देश इस समय कांग्रेस, भाजपा, आप, सपा, बसपा, वाममोर्चा, आदि राजनीतिक दलों में से किसी पर भी विश्वास नहीं कर रहा है। जनता यह जान चुकी है कि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। वह जिसके विरोध में मरने-मारने के लिए अपने कार्यकताओं को तैयार करते हैं या कि हमेशा उन्हें लड़ने-भिड़ने पर उतारू रखते हैं; खुद अपने घरेलू शादी-विवाह में उन्हीं के साथ गलबहियां करते या फोटुवा खिंचाते दिख जाते हैं। इनके लिए सत्य, ऋत, विचार, दृष्टि, चिंतन, कल्पना, स्वप्न आदि सब एक जैसे मुहावरे, कहावते और लोकोक्तियां हैं। वास्तव में,  ये लंपट हैं इसलिए नेता हैं। दूसरों पर धौंस जमाकर जबरन काम कराते हैं; इसलिए नेता हैं; ये हर जुगाड़ से अपनी जेब में माल भरते हैं, इसलिए नेता हैं। दरअसल, ये नेता ही इसलिए हैं कि वे देश का अहित कर सके। ये नेता ही इसलिए हैं कि सबका हक मार कर सर्प की तरह ‘कुंडली कानन बसै’ की टेक दे सके; ये नेता ही इसलिए हैं कि अपने विरोधियों को अपने पाले में येन-केन-प्रकारेण तरीके से शामिल कर सकें। वे सबसे अधिक अपनी छवि में सच्चे होने का रंग भरते हैं; विभिन्न संचार-माध्यमों से अपनी प्रशंसा में टीका और गाथाएं लिखवाते हैं; गुणगान और चालिसा पढ़ाते हैं। इस खुल्लमखुला खेल में पत्रकारों की बिरादरी सबसे आगे होती है; क्योंकि वे जानते हैं कि आदमी ईमान से कितना भी बेचेहरा और सूअर क्यों न हो; यदि वह बोलेगा तो जनता उसी की ही सुनेगी; क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है।  यहां यह कहना उपयुक्त होगा कि जो सच्चे नेता हैं वे अपना काम आज भी कर रहे हैं; तादाद में कम हो कर भी जनता के लिए हरसंभव लड़-भिड़ रहे हैं; उनके हक-हकूक के लिए सरकार से हरमुमकिन तकादा कर रहे हैं।

अतः अख़बारभाषी और टेलीविज़नदर्शी पत्रकार अख़बार में लिखे या टेलीविज़न पर दिखें; आम जनमानस को दिल्ली और दिल्ली के हुक्मरानों से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया चैनलों के पैकजी पत्रकारों और दिमागबंद विश्लेषकों से जनता का कोई वाद-विवाद नहीं है। उसे तो राहुल गांधी के छुट्टी पर जाने और आकर इसी सीजन 'लगन कराने' अथवा 'शादी रचाने' की ख़बरों से भी कोई मायने-मतलब नहीं है। उसे तो बस इतना पता है कि भेड़ूए जब करतल-ध्वनि का तुमुल-निनाद करते हैं, तो उसकी जार से पीड़ित लोग बस उनकी उपेक्षा करते हैं। अफसोस! जनता उन्हीं के सामने उनके मुंह पर थूक देती है। उनके लिखे पर चिनिया-बदाम खाकर डस्टबीन में ढेर कर देती है। उनके मुंह खोलने से पहले ही अपने रिमोट से उक्त चैनल बदल देती है। जनता इतना कुछ करती है; बस आजकल के पत्रकार इसका आभास और अहसास करने में पिछड़ जाते हैं। एक बात तो लगभग मानी हुई है कि जनता चाहे जितनी भी अभावग्रस्त क्यों न हो; वह आज के पत्रकारों की तरह विचार, चेतना और दृष्टि में कंगाल हरगिज नहीं है। ..और किसी व्यक्ति के प्रति जनता का दर्शाया गया आदर और उपेक्षा ही इतिहास के डीएनए में शामिल होता है जिससे राष्ट्र का भवितव्यम् लिखा जाना अभी बाकी है।

दरअसल, आज के शब्दनायकों और दृश्य-निर्माताओं को अपने हिन्दुस्तानीपन पर गर्व अथवा गौरव नहीं है। उन्हें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, चीन और जापान होना लुभाता है। वे अपनी संस्कृति को नीचा दिखाकर दूसरों को मान और तवज्ज़ों देने के फ़िराक में हैं। इसीलिए आजकल भारत में पिज्जा-बर्गर खाना दूध पीने से ज्यादा लाभकारी, उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक है। खैर! देश की आम-जनता अपने घर-परिवार के इज्जत और सम्मान के लिए अपनी जान तक दे देती है; लेकिन वह अपनी बीवियों को लाभ और प्रोन्नति के मोह में बाज़ार में बिकाउ नहीं बनाती है। जनता अपनी अर्जित भाषा में जीते-जागते हुए ताउम्र एक ही करवट रह जाती है; लेकिन वह कभी उन लोगों के आगे सर नहीं नवाती है जो हमारी सभ्यता, संस्कृति और परम्परा को नीची निगाह से देखते हैं। भारतीय संस्कृति और परम्परा के बाबत पूछने पर कई सम्मानित पत्रकार मुंह-बिचका देते हैं; जबकि उनके रईसजादे बेटे और बेटियां शराब के बोतल पर ठुमके लगाते हैं या बिस्तरबाजी करते हैं। उत्तर आधुनिकरवायत/फैशन के नाम पर प्रायः हम अनुचित चीजों के भी वर्चस्व-आक्रमण-प्रकोप को खुद से चिपकाए हुए हैं; जबकि उनका हमारे लिए न तो वह कभी स्वीकार्य होने चाहिए और न ही सामाजिक रूप से मान्य। 

इस घड़ी हमारे अन्दर सबसे गाढ़ा होता दुःख यह है कि आज की पत्रकारिता इन सब चीजों की तफ्शीश पूरजोर नहीं करती है। इसके लिए बहसतलब और लगातार अभियानरत नहीं रहती है। वह ऐसे मुद्दे उठाती है जो लोगों को यह बताए कि आज की पत्रकारिता दिवालिएपन का शिकार है। इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के लिए पत्रकारिता संस्थान भी बराबर का दोषी है। नतीजतन, ब्वायफ्रेंड/गर्लफ्रेंड पटाने वाली कैरियरिस्टिक पीढ़ी पत्रकार बनने और पत्रकारिता में आने के लिए आतुर अथवा आमादा है। वहीं जो पत्रकारिता के दिग्गज हैं, शेर बहादुर हैं; वे इतने अवसरवादी हो गए हैं कि अब उन्हें अपना नाम ‘भारत रत्न’ सम्मान के लिए घोषित कराने का उतावलापन है। और कुछ सच्चे और सही अर्थों में प्रतिबद्ध पत्रकार हैं वे अपनी रोटी-पानी की जुगाड़ में कलम घिस रहे हैं; आठ-हजारी या दस-हजारी रेट पर पत्रकारिता-कर्म में अहर्निश खुद को जोते हुए हैं। लेकिन यह भी सच है कि आमजन की राय और दृष्टि में असल महत्त्व इन्हीं का है; क्योंकि पत्रकार का अपनी चेतना में करोड़पति नहीं विचारवान व्यक्तित्व का कत्र्ता/कर्मिक होना अनिवार्य है, और इस चुनौतीपूर्ण समय की सबसे जरूरी मांग भी।
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Wednesday, February 25, 2015

वाह! रजीबा वाह!

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प्रोफेसर हो या प्राइम-मिनिस्टर, पी आप सिगरेट ही तो रहे हो!
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कल रास्ते में गार्जियन टाइप एक सज्जन मुझे सिगरेट फफकारते मिल गए। मैंने आदतन विनम्रतापूर्वक कहा-‘सर जी, यह आपको शोभा नहीं देता!’

इतना सुनते ही चीख पड़े ‘‘जानते हो मैं कौन हूं...,’’

मैने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए उनसे पूछ दिया; वे मुझ पर चिल्ला उठे।

‘‘मैं इस यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हूु, और आइंदा ऐसी बदतमीजी की, तो देख लूंगा...स्टूपिड!’’

‘‘ओए, प्रोफेसर हो या प्राइम-मिनिस्टर, पी आप सिगरेट ही तो रहे हो! ’’ इस बार सनकने की मुद्रा मेरी थी। मुझे जानने वाले ने कहा-‘‘भैया, जाने दीजिए...आप खाम-खां गले पड़ते हैं...,’’

मैं अपनी औकात पर आ गया, मेरी खामोशी देख वे दांत चिहार उठे। 
मैं मन ही मन बुदबुदाया, ‘ऐसे प्रोफेसरानों की ऐसी न तैसी...!’
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पान-पराग की मेहमाननवाजी में चमकते आधुनिक ‘भारत रत्न’

जिन्हें सिर्फ अपनी सूरत बनाने की होड़/चिंता हो...वे जनता की जिन्दगी ज़हीन ख़ाक बनाएंगे!
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राजीव रंजन प्रसाद
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देश-समाज के कुलदेवता वे महान हस्तियां मानी जाती हैं जो अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति, संस्कार-बोध, परम्परा, भाषा, विचार, दृष्टिकोण आदि को गति देते हैं; दिशादर्शन करते हैं। जिनकी जड़ अपनी सरजमीं से गहरे जुड़ी होती हैं। उनका कहा-सुना देश-समाज की नवांकुर पीढ़ी को ओज, उर्जा, तेज, पराक्रम, शौर्य, वीरता, संकल्प, आत्मबलिदान आदि से सदैव लबरेज किए रखता है। ऐसे लोग सही मायने में हर दृष्टिकोण से सम्मानीय एवं आदरणीय होते हैं जिनके समक्ष देश की जनता सजदा करती है। क्योंकि उनकी उपस्थिति मात्र से देश की करोड़ों-करोड़ जनता को अपने जि़दा रहने का आत्मिक खुराक मिलता है। चाहे देश की राजनीति कितनी भी दलदल, पाखंड, शोषणमूलक, निरंकुश अथवा आतातायी कारपोरेटियों की गुलाम/शिकार क्यों न हो?

लेकिन आधुनिक समय में ये कुलदेवता कुलभक्षी हो गये हैं। वे सिगरेट, पान, तमबाकू बेचने वाले के गिरोह में शामिल हैं। उनके द्वारा किए जा रहे कथित समाज-कार्य और जनजागरण अभियान का हिस्सा बनते हैं। ऐसे विवेकहीन लोग जो अपनी ज़मीं की भाषा बांचने में अक्षम होते हैं। देश की सवा अरब की जनसंख्या वाली आबादी से मुखातिब होने के लिए हिन्दी के रोमनीकरण का आश्रय लेते हैं...ऐसे लोग माफ कीजिएगा! 'पाॅलिटिक्ल चियर्स लिडर्स' हो सकते हैं, लेकिन जनता या जनमानस के आंखों का नूर/कोहिनूर नहीं बन सकते हैं; ऐसे लोग अकूत प्रचारवादी तेवर के बदौलत लोकप्रिय हो सकते हैं; लेकिन लोकनायक अथवा लोकबंधु कदापि नहीं; हरगि़ज नहीं!


ऐसे जिन्दा आदमकद-बुतों के लिए चेतनाविहीन और विवेकहीन पत्रकारीय नियोक्ता/प्रबन्धक ही लिख सकते हैं:

'' Discover the future with thought leaders and opinion makers at the Starting Point of Tomorrow. ''



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(चित्र इंडिया टुडे के 4 मार्च, 2015 अंक से साभार सहित)

Tuesday, February 24, 2015

अकादमिक बहरों के लिए

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यदि आप निर्वस्त्र हों, तो पोशाक पहनने के लिए कहना चिल्ल-पों नहीं है!
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हर छात्र-छात्रा के अन्दर योग्यता की चिनगारी है। शिक्षक ही इस चिनगारी पर जमी राख को हटाकर इसे ज्वाला बना सकता है। पर इससे पहले शिक्षक को अनने ज्ञान पर जमीं राख की परत को हटा लेना होगा।
कवयित्री महादेवी वर्मा
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में

आपके आशीर्वाद और शुभकामना का सादर निमन्त्रण:

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बिना किसी अतिरिक्त हर्ष और आह्लाद के आपसबों को प्रसन्नतापूर्वक सूचित कर रहा हूं कि मैं,
राजीव रंजन प्रसाद जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सत्र, 2009 से पंजीकृत होकर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र के निर्देशन में ‘संचार और मनोभाषिकी’(युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में) विषयक शोधकार्य पिछले पांच वर्षों में शोध-अध्येतावृत्ति के अनवरतता के आधार पर करता रहा हूं; अब मैं अपना शोध-कार्य जमा कर रहा हूं। इस सम्बन्ध में संभावित तारीख निम्नांकित हो सकती हैं:

अंतिम आर.पी.सी रिपोर्ट: 05 मार्च(मेरी शादी का बारहवां जन्मबंधन)
प्री-सब्मीशन: 27 अप्रैल(बड़ा वाला बाबू देव रंजन का 10वां जन्मदिन)
सब्मीशन: 25 जुलाई(छोटे वाले बाबू दीप रंजन का 8वां जन्मदिन)


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आप चाहकर भी अपने देश-काल-परिवेश के चलन/प्रथा से अलग नहीं हो सकते हैं। अतः शोध-कार्य अपने विश्वविद्यालय में किए जा रहे शोध-कार्यों का अनुचरण मात्र है। कई बार व्यक्तिगत प्रतिभा-प्रदर्शन का लालच स्वयं को विशिष्ट अथवा कुछ अलग हट कर होने-बनने-दिखने का गुमान रच देता है। अतः मेरे शोध-कार्य में वही सबकुछ है जो अन्य लोगें के भलमनसाहत के द्वारा शोध-कार्य हो रहे हैं। अर्थात्-‘तेरा तुझको अर्पण...क्या लागे मेरा!'

वैसे भी शोध-प्रबन्ध जमा करने के बाद अपने गोल्ड-मेडल की तरह इस उपाधि का भी भला क्या उपयोग? खैर!
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद


Sunday, February 22, 2015

शर्त

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मौन सर्वार्थसाधनम्!
मैं जो जानता हूं, जितना जानता हूं, जिस तरह भी जानता हूं...सबकुछ इसी दुनिया से है; फिर आत्मप्रकाशन का लोभ कैसा? अपने को ज्ञानी और विद्वान कहे जाना की महत्त्वाकांक्षा क्यों? क्यों यह लिप्सा कि मेरी मुक्तकंठ प्रशंसा के साथ प्रशस्ति गान हो? 
जो सर्वज्ञाता है, जो सर्वद्रष्टा है, जो जानता है कि पीछे क्या हुआ और कल क्या होगा...जो यह भी जानता है कि दुनियावी गतिविज्ञान में मनुष्य की चेतना और भौतिक जीवद्रव्य की क्या और कितनी भूमिका है...जो यह भी जानकारी रखता है कि आने वाले समय में सामान्य चीजें बचेंगी, श्रेष्ठ नष्ट होगा? जो इस बात से पूरी तरह वाकिफ है कि अब सूर्योदय लम्बे होंगे, अधिक तापशील और प्रखर। जिसे इस बात तक का भान है कि इस दुनिया में बीमारियों का अंतहीन साम्राज्य होगा? जो यह भी जानता है कि सत्य अब बोलने से नहीं मौन रहने पर मुखरित, तेजमान और आलोकित होगा उसके लिए किसी भी शर्त का भागी बनने पर न तो कोई ग्लानि है और न ही शोक-दुःख!

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कल रात शर्त लगी। मेहरारू से। उसे कहा कि नैक टीम बीएचयू आ रही है और उसके निदेशक को मैंने एक ई-मेल लिखा है। उसने पूछा? काहे के लिए? मैंने कहा-बीएचयू में शोध की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए और मुझ जैसे होनहार और प्रतिभाशाली विद्याार्थी के शोध-कार्य को तवज्जो और समय से शोध-अध्येतावृत्ति देने के लिए। उसने कहा-जवाब दिया किसी ने? मैंने-कहा-जरूर कुछ होगा! उसने कहा-नहीं हुआ तो? मैंने कहा-जो तुम कहो सो...!
‘यह सब नौटकी सदा के लिए बंद।’
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक शोध विद्यार्थी का अकादमिक कार्य-संस्कृति, गतिविधि एवं कार्यों पर एक आवश्यक टिप्पणी।

Rajeev Ranjan

<rajeev5march@gmail.com>
Wed, Feb 18, 2015 at 10:19 AM
To: .director.naac@gmail.com
मामूली संशोधन के साथ जिसका कोई प्रत्युत्तर अब तक प्राप्त नहीं हुआ है
प्रतिष्ठा में,
निदेशक,
राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद।

विषय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के प्रति बरते जाने वाली संवेदनहीनता और आपसी संवादहीनता के सम्बन्ध में।

मान्यवर,

आने वाले दिनों में आपकी टीम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पहुंच रही है; यह हमारे लिए अत्यंत हर्ष तथा प्रसन्नता का विषय है। आपकी यह यात्रा अकादमिक दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण है। आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पठन्-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, शोध-अनुसन्धान सम्बन्धी गतिविधियों, गुणवत्तापूर्ण स्थिति, स्तरीयता, जरूरी अकादमिक सुविधाओं की उपलब्धता, अकादमिक कार्य-व्यवहार एवं कार्य-संस्कृति आदि विभिन्न आधारों-मापदंडों पर इस विश्वविद्यालय को आवश्यक वरीयता अपने मूल्यांकन के तत्पश्चात प्रदान करेंगे, जो निश्चित तौर पर हमारे लिए उल्लेखनीय और आत्म-गौरव का विषय होगा।

महोदय, मेरी कुछ चिंताएं हैं  जिसे एक विद्यार्थी की आपत्ति के रूप में आपके द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए::

1. क्या आप यहां के गुणवत्तापूर्ण अकादमिक शोध-अनुसन्धान, नवोन्मेष, अन्तरानुशासनिक प्रयासों की भी समीक्षा, व्याख्या और विश्लेषण करेंगे?
2. क्या आप यह देखेंगे कि शोध-कार्य में संलग्न निष्ठावान विद्यार्थियों के लिए यह विश्वविद्यालय क्या, कैसा और किस तरह का सहयोग-समर्थन अथवा रवैया बरत रहा है?
3. क्या आप यह भी पड़ताल करेंगे कि यहां होने वाले शोध-कार्यों की समाजोपयोगी-मूल्य क्या है?
4. अकादमिक स्तरीयता, महत्त्व और गुणवत्ता की दृष्टि से उन कार्यों को बढ़ावा देने के लिए शोधार्थियों को किस प्रकार की सहूलियत प्रदान की जा रही है?
5. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जो शोध-अध्येतावृत्ति प्रदान करता है; उस आर्थिक सहयोग की दृष्टि से शोध-परिणाम किस प्रकार मौलिक चिंतन-प्रक्रिया का हिस्सा है? क्या उन्हें बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अन्तर्गत विशेष तौर पर वर्गीकृत, उल्लेखित और अभिसारित किया जा सकता है?

महोदय, मेरा अपना अनुभव बेहद ख़राब है और मन खट्टा। अनुसन्धान की दशा-दिशा देखकर मन कचोटता है कि यहां इस तरह कार्य करने और अपना शत-प्रतिशत देने का क्या अर्थ, महत्त्व और उपलब्धि, जिसे अंततः दस्तावेजों के टकसाल में दीमक और कीड़ों के हवाले हो जाना है? संचार का विद्यार्थी हूं, लेकिन यहां इस विश्वविद्यालय में जबर्दस्त संवादहीनता है, और संवेदनहीनता भी। अगर आपको जरूरी मालूम दिया, तो मैं हरसंभव साक्ष्य आपको उपलब्ध करा सकता हूं।
सादर,

भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद,
वरिष्ठ शोध अध्येता
(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी,
हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी-221005
ई-मेल: rajeev5march@gmail.com
मो.: 07376491068

वाह! रजीबा वाह!

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कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’ नचिकेता 
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नहीं चाहिए तुम्हारा यह आश्वासन/जो केवल हिंसा से अपने को सिद्ध करता है/नहीं चाहिए यह विश्वास जिसकी चरम परिणति हत्या हो/मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूं/अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक/अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त/अपनी उदासी में अधिक उदार।

















(यदि झूठी सत्ता सत्य बखाने, आमजन को प्रताड़ित करे, स्त्रियों को नानाप्रकार की प्रताड़ना दे, ज्ञानाश्रयी चेतना को सही ज्ञानोपलब्धि एवं चिंतन का अवसर न दे, बच्चे जहां अपनी चेतना, समृति और संस्कार से पूरी तरह कट चले हों; वहां समझों कि प्राकृतिक खदानें लावा से सराबोर हो चुकी हैं और यह दुनिया अपनी मृत्यु के आखिरी चरण पर जा पहुंची है।....wait pls)

Saturday, February 21, 2015

दरख़्त की शादी



जब मैं अपने बच्चों के लिए कपड़े लेने के लिए सोचता हूं और उनकी नाप पर नज़र डालता हूं, तो आपको उनकी उम्र का ख्याल हो जाता है। दुनिया बदलने से पहले बच्चों का कपड़ा बदलना सबसे अधिक अनिवार्य और अपरिहार्य है।

Tuesday, February 17, 2015

बात बोलेगी, हम नहीं!

मेरा नाम 'मेरी काॅम'








मेरा नाम 'मेरी काॅम’

Monday, February 16, 2015

धनुर्धर! आपने स्वयं पत्रकारीय गांडीव क्यों छोड़ा?

प्रिय मित्र,