Thursday, February 26, 2015

राहुल की छुट्टी पर बड़ी ख़बरे लांच करना बकलोल पत्रकारों की बेशर्मी का उम्दा चेहरा


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जनाब! अधपकी हुई रोटी जनता थाली से बाहर कर चुकी है; अब वह गंगा नहाए तो उससे क्या?
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राजीव रंजन प्रसाद



भारतीय पत्रकारिता अपनी बेहयाई से बाज नहीं आ सकती है; और कारपोरेटी पूंजीपतियों के दुमछल्ले पत्रकार उसमें शरीक होने से। ताजा मामला राहुला गांधी के छुट्टी पर जाने का है। हिन्दीपट्टी का सम्मानित अख़बार ‘जनसत्ता’ तक इस पर ताबड़तोड़ ‘बाॅटम स्टोरी’ देने में जुटा है। जबकि कायदे से यह ख़बर होनी ही नहीं चाहिए। कांग्रेस के जिस कथित युवराज को जनता ने लोकतांत्रिक जनादेश के अपने एकतरफा निर्णय से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बिस्तर ही गोल कर दी; वह राहुल गांधी संसद में रहे या दस जनपथ में; नगर-भ्रमण करें या विदेश-यात्रा; यह जनता के लिए महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मामला-मसला नहीं है। हां, बजट-सत्र के दौरान उनकी संसद में अनुपस्थिति को लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है; लेकिन वह भी इतने कोहराम की मांग नहीं करता है। दरअसल, भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर चारो तरफ से घिरी मोदी सरकार इस बजट सत्र को ऐसे ही ‘नाॅनसेंस’ ख़बरों के महाकवरेज के द्वारा गुमा देना चाहती है। वह नहीं चाहती है कि उसके फैसले विवाद में घसीटे जाए या उसे गंभीर जवाबतलबी का सामना करना पड़े। लेकिन, यह मानी हुई बात है कि जब नंगापन अत्यधिक हो, तो परदे की लम्बाई-बड़ाई घटाने-बढ़ाने से ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है। यह सरकार अपनी कारपोरेटी नंगई छुपाना चाहती है जिसे पूंजीपतियों के शातिर जासूसों/पत्रकारों ने तार-तार कर दिया है। यानी आम-जनता राहुल गांधी को नहीं खोज रही है। इसे ख़बर की छननी में दलाल पत्रकारों की खेप ढूंढ रही है। सरकारी एजेण्ट बन चुके ये पत्रकार पूंजी के दलाल हैं इसीलिए वे मीडिया-सेक्टरों में टिके हुए हैं; यदि न होते, तो जनता की तरह सड़क से संसद तक लड़ना-भिड़ना पड़ जाता। 

मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि उसके पास अक्ल की भारी कमी है। ऐसे में वह अक्लमंदों की खरीद-फ़रोख़्त को सही मानते हुए उनसे हरसंभव सौदेबाजी करती है। वह हमेशा अपने को केन्द्र में ‘फोक्सड’ रखना चाहती है। लिहाजा, जनता से और जनता को किए वादे से वह दिन-ब-दिन दूर होती जा रही है। रेडियो पर ‘मन की बात’ सुनाने का उनका तरीका भी अब फुस्स साबित होने लगा है। युवा पीढ़ी रोजगार मांग रही है; किसान ऋणों से छुटकारा चाहते हैं; बाज़ार महंगाई से बरी होना चाहता है; पुलिस तबदाले के तनाव और रस्साकसी से मुक्त होने की चाह में है; शिक्षा-व्यवस्था अपने भीतर आमूल बदलाव लाने की रट ठाने हुए है....;  और भी ऐसी ही अनगिनत मांगे जिनके बारे में सरकार को सोचने की फुरसत नहीं है; जबकि 24 घंटे में मामुली घंटे सोने का दावा और प्रचार गांठने वाली मोदी-सरकार और उनका मंत्रिमण्डलीय कुनबा ट्विटर और अन्य सोशल साइटों पर उफनाए हुए है। आने वाले दिनों में ये हवा-हवाई ‘जम्पिंग-जेट हवा में ही रह जाने वाले हैं। ‘हर हर मोदी’ को महादेव यानी बाबा विश्वनाथ भी नहीं बख़्शेंगे; क्योंकि उन्होंने उनकी जटा में विराजमान माता गंगा को साफ, स्वच्छ, निर्मल और सदानीरा बनाने का जो वादा किया था और जीत जाने के बाद जो संकल्प दुहराया था; उससे भी वह बेईमानी करने से नहीं चूके।  अब वे कह रहे हैं कि हमारी पार्टी में शुद्ध मन-विचार वाले नेता नहीं हैं। प्रश्न है कि ‘जात न पूछै साधु की...’ रट्टा मारने वाले इस मुल्क की ब्रह्मज्ञानी जातियां अपनी शुद्धता, शुचिता और सुपराक्रमीयता का शील कहां और कैसे भंग कर चुकी हैं।

देश इस समय कांग्रेस, भाजपा, आप, सपा, बसपा, वाममोर्चा, आदि राजनीतिक दलों में से किसी पर भी विश्वास नहीं कर रहा है। जनता यह जान चुकी है कि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। वह जिसके विरोध में मरने-मारने के लिए अपने कार्यकताओं को तैयार करते हैं या कि हमेशा उन्हें लड़ने-भिड़ने पर उतारू रखते हैं; खुद अपने घरेलू शादी-विवाह में उन्हीं के साथ गलबहियां करते या फोटुवा खिंचाते दिख जाते हैं। इनके लिए सत्य, ऋत, विचार, दृष्टि, चिंतन, कल्पना, स्वप्न आदि सब एक जैसे मुहावरे, कहावते और लोकोक्तियां हैं। वास्तव में,  ये लंपट हैं इसलिए नेता हैं। दूसरों पर धौंस जमाकर जबरन काम कराते हैं; इसलिए नेता हैं; ये हर जुगाड़ से अपनी जेब में माल भरते हैं, इसलिए नेता हैं। दरअसल, ये नेता ही इसलिए हैं कि वे देश का अहित कर सके। ये नेता ही इसलिए हैं कि सबका हक मार कर सर्प की तरह ‘कुंडली कानन बसै’ की टेक दे सके; ये नेता ही इसलिए हैं कि अपने विरोधियों को अपने पाले में येन-केन-प्रकारेण तरीके से शामिल कर सकें। वे सबसे अधिक अपनी छवि में सच्चे होने का रंग भरते हैं; विभिन्न संचार-माध्यमों से अपनी प्रशंसा में टीका और गाथाएं लिखवाते हैं; गुणगान और चालिसा पढ़ाते हैं। इस खुल्लमखुला खेल में पत्रकारों की बिरादरी सबसे आगे होती है; क्योंकि वे जानते हैं कि आदमी ईमान से कितना भी बेचेहरा और सूअर क्यों न हो; यदि वह बोलेगा तो जनता उसी की ही सुनेगी; क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है।  यहां यह कहना उपयुक्त होगा कि जो सच्चे नेता हैं वे अपना काम आज भी कर रहे हैं; तादाद में कम हो कर भी जनता के लिए हरसंभव लड़-भिड़ रहे हैं; उनके हक-हकूक के लिए सरकार से हरमुमकिन तकादा कर रहे हैं।

अतः अख़बारभाषी और टेलीविज़नदर्शी पत्रकार अख़बार में लिखे या टेलीविज़न पर दिखें; आम जनमानस को दिल्ली और दिल्ली के हुक्मरानों से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया चैनलों के पैकजी पत्रकारों और दिमागबंद विश्लेषकों से जनता का कोई वाद-विवाद नहीं है। उसे तो राहुल गांधी के छुट्टी पर जाने और आकर इसी सीजन 'लगन कराने' अथवा 'शादी रचाने' की ख़बरों से भी कोई मायने-मतलब नहीं है। उसे तो बस इतना पता है कि भेड़ूए जब करतल-ध्वनि का तुमुल-निनाद करते हैं, तो उसकी जार से पीड़ित लोग बस उनकी उपेक्षा करते हैं। अफसोस! जनता उन्हीं के सामने उनके मुंह पर थूक देती है। उनके लिखे पर चिनिया-बदाम खाकर डस्टबीन में ढेर कर देती है। उनके मुंह खोलने से पहले ही अपने रिमोट से उक्त चैनल बदल देती है। जनता इतना कुछ करती है; बस आजकल के पत्रकार इसका आभास और अहसास करने में पिछड़ जाते हैं। एक बात तो लगभग मानी हुई है कि जनता चाहे जितनी भी अभावग्रस्त क्यों न हो; वह आज के पत्रकारों की तरह विचार, चेतना और दृष्टि में कंगाल हरगिज नहीं है। ..और किसी व्यक्ति के प्रति जनता का दर्शाया गया आदर और उपेक्षा ही इतिहास के डीएनए में शामिल होता है जिससे राष्ट्र का भवितव्यम् लिखा जाना अभी बाकी है।

दरअसल, आज के शब्दनायकों और दृश्य-निर्माताओं को अपने हिन्दुस्तानीपन पर गर्व अथवा गौरव नहीं है। उन्हें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, चीन और जापान होना लुभाता है। वे अपनी संस्कृति को नीचा दिखाकर दूसरों को मान और तवज्ज़ों देने के फ़िराक में हैं। इसीलिए आजकल भारत में पिज्जा-बर्गर खाना दूध पीने से ज्यादा लाभकारी, उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक है। खैर! देश की आम-जनता अपने घर-परिवार के इज्जत और सम्मान के लिए अपनी जान तक दे देती है; लेकिन वह अपनी बीवियों को लाभ और प्रोन्नति के मोह में बाज़ार में बिकाउ नहीं बनाती है। जनता अपनी अर्जित भाषा में जीते-जागते हुए ताउम्र एक ही करवट रह जाती है; लेकिन वह कभी उन लोगों के आगे सर नहीं नवाती है जो हमारी सभ्यता, संस्कृति और परम्परा को नीची निगाह से देखते हैं। भारतीय संस्कृति और परम्परा के बाबत पूछने पर कई सम्मानित पत्रकार मुंह-बिचका देते हैं; जबकि उनके रईसजादे बेटे और बेटियां शराब के बोतल पर ठुमके लगाते हैं या बिस्तरबाजी करते हैं। उत्तर आधुनिकरवायत/फैशन के नाम पर प्रायः हम अनुचित चीजों के भी वर्चस्व-आक्रमण-प्रकोप को खुद से चिपकाए हुए हैं; जबकि उनका हमारे लिए न तो वह कभी स्वीकार्य होने चाहिए और न ही सामाजिक रूप से मान्य। 

इस घड़ी हमारे अन्दर सबसे गाढ़ा होता दुःख यह है कि आज की पत्रकारिता इन सब चीजों की तफ्शीश पूरजोर नहीं करती है। इसके लिए बहसतलब और लगातार अभियानरत नहीं रहती है। वह ऐसे मुद्दे उठाती है जो लोगों को यह बताए कि आज की पत्रकारिता दिवालिएपन का शिकार है। इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के लिए पत्रकारिता संस्थान भी बराबर का दोषी है। नतीजतन, ब्वायफ्रेंड/गर्लफ्रेंड पटाने वाली कैरियरिस्टिक पीढ़ी पत्रकार बनने और पत्रकारिता में आने के लिए आतुर अथवा आमादा है। वहीं जो पत्रकारिता के दिग्गज हैं, शेर बहादुर हैं; वे इतने अवसरवादी हो गए हैं कि अब उन्हें अपना नाम ‘भारत रत्न’ सम्मान के लिए घोषित कराने का उतावलापन है। और कुछ सच्चे और सही अर्थों में प्रतिबद्ध पत्रकार हैं वे अपनी रोटी-पानी की जुगाड़ में कलम घिस रहे हैं; आठ-हजारी या दस-हजारी रेट पर पत्रकारिता-कर्म में अहर्निश खुद को जोते हुए हैं। लेकिन यह भी सच है कि आमजन की राय और दृष्टि में असल महत्त्व इन्हीं का है; क्योंकि पत्रकार का अपनी चेतना में करोड़पति नहीं विचारवान व्यक्तित्व का कत्र्ता/कर्मिक होना अनिवार्य है, और इस चुनौतीपूर्ण समय की सबसे जरूरी मांग भी।
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