आपके आशीर्वाद और शुभकामना का सादर निमन्त्रण:
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बिना किसी अतिरिक्त हर्ष और आह्लाद के आपसबों को प्रसन्नतापूर्वक सूचित कर रहा हूं कि मैं,
राजीव रंजन प्रसाद जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सत्र, 2009 से पंजीकृत होकर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र के निर्देशन में ‘संचार और मनोभाषिकी’(युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में) विषयक शोधकार्य पिछले पांच वर्षों में शोध-अध्येतावृत्ति के अनवरतता के आधार पर करता रहा हूं; अब मैं अपना शोध-कार्य जमा कर रहा हूं। इस सम्बन्ध में संभावित तारीख निम्नांकित हो सकती हैं:
अंतिम आर.पी.सी रिपोर्ट: 05 मार्च(मेरी शादी का बारहवां जन्मबंधन)
प्री-सब्मीशन: 27 अप्रैल(बड़ा वाला बाबू देव रंजन का 10वां जन्मदिन)
सब्मीशन: 25 जुलाई(छोटे वाले बाबू दीप रंजन का 8वां जन्मदिन)
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आप चाहकर भी अपने देश-काल-परिवेश के चलन/प्रथा से अलग नहीं हो सकते हैं। अतः शोध-कार्य अपने विश्वविद्यालय में किए जा रहे शोध-कार्यों का अनुचरण मात्र है। कई बार व्यक्तिगत प्रतिभा-प्रदर्शन का लालच स्वयं को विशिष्ट अथवा कुछ अलग हट कर होने-बनने-दिखने का गुमान रच देता है। अतः मेरे शोध-कार्य में वही सबकुछ है जो अन्य लोगें के भलमनसाहत के द्वारा शोध-कार्य हो रहे हैं। अर्थात्-‘तेरा तुझको अर्पण...क्या लागे मेरा!'
वैसे भी शोध-प्रबन्ध जमा करने के बाद अपने गोल्ड-मेडल की तरह इस उपाधि का भी भला क्या उपयोग? खैर!
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
राजीव रंजन प्रसाद जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सत्र, 2009 से पंजीकृत होकर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र के निर्देशन में ‘संचार और मनोभाषिकी’(युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के विशेष सन्दर्भ में) विषयक शोधकार्य पिछले पांच वर्षों में शोध-अध्येतावृत्ति के अनवरतता के आधार पर करता रहा हूं; अब मैं अपना शोध-कार्य जमा कर रहा हूं। इस सम्बन्ध में संभावित तारीख निम्नांकित हो सकती हैं:
अंतिम आर.पी.सी रिपोर्ट: 05 मार्च(मेरी शादी का बारहवां जन्मबंधन)
प्री-सब्मीशन: 27 अप्रैल(बड़ा वाला बाबू देव रंजन का 10वां जन्मदिन)
सब्मीशन: 25 जुलाई(छोटे वाले बाबू दीप रंजन का 8वां जन्मदिन)
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आप चाहकर भी अपने देश-काल-परिवेश के चलन/प्रथा से अलग नहीं हो सकते हैं। अतः शोध-कार्य अपने विश्वविद्यालय में किए जा रहे शोध-कार्यों का अनुचरण मात्र है। कई बार व्यक्तिगत प्रतिभा-प्रदर्शन का लालच स्वयं को विशिष्ट अथवा कुछ अलग हट कर होने-बनने-दिखने का गुमान रच देता है। अतः मेरे शोध-कार्य में वही सबकुछ है जो अन्य लोगें के भलमनसाहत के द्वारा शोध-कार्य हो रहे हैं। अर्थात्-‘तेरा तुझको अर्पण...क्या लागे मेरा!'
वैसे भी शोध-प्रबन्ध जमा करने के बाद अपने गोल्ड-मेडल की तरह इस उपाधि का भी भला क्या उपयोग? खैर!
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
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