धनुर्धर! आपने स्वयं पत्रकारीय गांडीव क्यों छोड़ा?
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यह चिट्ठी अपने मित्र प्राजंल धर के नाम
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भारत
में मीडिया शिक्षा खस्ताहाल है। पत्रकारीय चेतना नदारद है। मीडिया सर्वे
और अनुसन्धान रिपोर्टों में स्तरीयता का अभाव है और गुणवत्ता की भारी कमी।
यह सब आप ज्यों ही कहना शुरू करेंगे; मीडिया-कुंभ के नामी-गिरामी चेहरे और
अकादमिक सुवर्णों के चेहरे तमतमाने लगेंगे; और निश्चय जानिए कि आपका वध तय
है।
चंद लोग हैं, जो पत्रकारिता के पेशे को मुनाफे और कमाई का जरिया बनाए जाने की आलोचना करते हैं। पुरजोर विरोध करते हैं। प्राजंल धर उन्हीं में से एक चिर-परिचित नाम है। तेज-तर्रार मीडियाविद् प्रांजल धर को मैं उनके मीडियावी तेवर की वजह से पढ़ता हूं, पसंद करता हूं और उनके लिखे पर हरसंभव प्रतिक्रिया देने की कोशिश करता हूं।
वर्तमान साहित्य के फरवरी, 2015 अंक में वे मौजूदा मीडिया के लूर-लछन पर अपनी कलम चलाते हैं। अपने स्वभाव के अनुरूप इसकी वैचारिक मज्ज़मत की है। वे मीडिया के वर्तमान रंग-ढंग, रवैए और पत्रकारीय चेतना से किए जा रहे खिलवाड़ को ग़लत मानते हैं। वह विभिन्न जनमाध्यमों में कार्यरत पत्रकारों की नई खेप को लक्ष्य कर उन पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हैं। ‘कैसे बदलाव हो रहे हैं मीडिया में’ शीर्षक से लिखे अपने आलेख में लिखा है-‘‘पत्रकारिता के पुराने स्तंभ ढह जरूर रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र में कोई नया या युवा स्तंभ दिखाई नहीं देता। यह बात निराशा पैदा करती है। ख़बरों की भरमार जरूर हुई है, पर उस तरीके की ख़बरों की जिसमें यह बताया जाता है कि फलां हीरोइन आजकल फलां हीरों के साथ ब्रेकअप के खतरनाक दौर से गुज़र रही है। या फिर फलां हीरों ने अपने सिक्स-पैक-एब्स गढ़ लिए हैं और फलां एक्ट्रेस ने अपनी कमर पौने तीन इंच कम कर ली है। इसी तरह के पत्रकारों की भीड़ बहुत है, पर दुर्भाग्यवश किसी भी पत्रकार में प्रभाष जोशी या वर्गीज जैसी चिंगारी दिखाई नहीं देती है।''
प्रांजल धर सही हैं अपनी जगह। लेकिन, जो सही लोग ग़लत जगहों पर सही तरीके से काम कर रहे हैं; क्या उनकी भूमिका कम है? क्या उनकी लड़ाई और कई स्तरों पर रोज-ब-रोज की जाने वाली जद्दोजहद कमतर है? क्यों सचाई का साफा बांधे 'सच और पूरा सच' दिखाने का दावा करने वाले लोग ग़लत हाथों और ताकतों के हाथों खेलने पर विवश हैं? प्रांजल धर को अपने पुराने आलेखागार का वह शीर्षक एक बार देखना चाहिए, जिसे उन्होंने माकुल ढंग से शब्दबद्ध किया है-‘जहां मीडिया खिलौना बन जाता है!’?
मित्र, आप जिस मीडिया के बदलते मिज़ाज और करतूतों को देख-सुन-पढ़ कर आहत और बेचैन हो रहे हैं; क्या आपने शब्द-दृश्य-ध्वनि की इस दुनिया में दाखिल होने वाले युवाओं के चेहरे-आवाज़, बोल-बर्ताव, विचार-चिंतन, कल्पना-स्वप्न आदि से यारी गांठा है; यदि हां, तो आप को यह बताने की जरूरत ही नहीं है कि पत्रकारों की नई युवा खेप वर्गीज कुरीयन, प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर, कमला प्रसाद आदि का ‘फाॅलोवर’ क्यों नहीं है? ‘5 W और 1 H’ पढ़कर आमुख लिखना सिखने वाली नई पीढ़ी को पत्रकार अथवा मीडियाकर्मी होने-बनने के कैसे और कितने मोहक-रंगीन सपने दिखाए जाते हैं; क्या आप इस सच को नकार सकते हैं? क्या आप कह सकते हैं कि पुण्य पसुन वाजपेयी और रविश कुमार से प्रभावित होकर स्वच्छ एवं साफ-सुथरी पत्रकारिता करने की आशा एवं विश्वास रखने वाली युवा पीढ़ी को पत्रकार अथवा मीडियाकर्मी होने का सुअवसर कुल जमा संघर्ष के बावजूद मिल जा रहा है? क्या आप अपने अनुभव और दिमाग पर जोर डालकर इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि भारत के नामी-गिरामी सरकारी-गैर-सरकारी मीडिया-संस्थानों से पत्रकारिता के गुर और दक्षता हासिल किए हुए लोगों को आसानी से मीडिया में सचेतन और जवाबदेह पत्रकारिता करने के लिए उपयुक्त जगह, सम्मानजनक पारिश्रमिक
और आवश्यक स्वतंत्रता प्रदान की जा रही है?
यदि ग़लत के विरोध करने के एवज में आपको हाशिए पर रखा जा रहा हो
या सक्रिय भागीदारी से वंचित कर दिया जा रहा हो
या आपको प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से लांछित-प्रताड़ित किया जा रहा हो,
तो आप किस तरह वर्गीज कुरीयन, प्रभाष जोशी और अन्यान्य पत्रकारीय महापुरुषों के महानतम कार्यों के रोशनी-पथ में जगमग-जगमग करने की चेष्टा, तबीयत और नियत रखेंगे?
उनके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ाने में अपना सर्वस्व होम कर देंगे?
ज़मीनी पत्रकारिता,विकास पत्रकारिता, स्वास्थ्य पत्रकारिता,
साहित्यिक पत्रकारिता, सांस्कृतिक पत्रकारिता आदि के प्रश्न से जूझेंगे; अपनी अलग राह बनाने के संकल्प और दृढ़विश्वास पर टिके रहेंगे; आदर्श पत्रकारिता की थपली बजाकर और महान मीडिया महानुभावों के आगे दंडवत हो कर हम-आप चाहे कोई यह आखिरकार कैसे साबित कर सकेगा कि मौजूदा पत्रकारीय ढर्रे को बदल सकने की हममें सामथ्र्य, हिम्मत, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति विद्यमान है?...
अर्थात् मीडिया-क्षेत्र में सच इतना भयावह है कि आपके बेबाक बात बोलने का ख़ामियाजा आप ही को भुगतना होगा; नौकरी से निष्कासन आप ही का होगा और आज के पूंजी-चरित्र के बल पर खड़ी की जा चुकी ताकतवर मीडिया-प्रतिष्ठानों से पंगा मोल लेने की एवज में जान तक गंवानी आप ही को पड़ेगी? आप खुद अपने उदाहरण से देखें, तो आप नीर-क्षीर-विवेक आलोचना कर सकने की स्थिति में हैं; क्योंकि आप मीडिया के मुख्य व्यवहार-क्षेत्र में नहीं हैं? यदि होते, तो आप भी शायद ही इस तरह की वैचारिकता से ओत-प्रोत आलेख लिख और प्रस्तुत कर पाते; अपने ही नाभिनाल को खरी-खोटी सुना पाते!
अतः जानिए की मीडियावी-अकादमिक सुअरपट्टी में इत्र-फुलेल बेचा जा रहा है; एक-दूसरे के देह को सुहराया जा रहा है; हंसी बेचने का कारोबार टेलीविज़न शो द्वारा हो रहा है; बेमतलब बकवास को स्क्रिप्ट कहकर ‘सोप ओपेरा’ में कैश कराया जा रहा है। आज स्वनियमन और आत्मानुशासन के नाम पर मीडिया जार-बेजार-बाज़ार बनती जा रही है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का संचार-उद्देश्य अपनी भद्द पिट जाने से परेशान है; लोग चिहुक रहे हैं; सिसक रहे हैं; चीख रहे हैं...और असमय मीडियावी मार से बेमौत मर रहे हैं; और मीडियावी आइने पर कमर्शियल ब्रेक ताबड़तोड़ जारी है। सबलोग भौचक्क, तमाशबीन और कूपमंडूक बने हुए हैं। घनघोर और बीहड़...स्पाइरल आॅफ साइलेंस। नतीजतन, संचार का हाइपरनिडिल थ्योरी खचाखच आंख में घोपा जा रहा है; कान में चुआया जा रहा है। तिस पर भी श्रोता, दर्शक और पाठकों को प्रतीक्षा है कि सचाई इसी रास्ते से ही आएगी! उनका यह भरोसा ठीक है; जैसे हाल ही में, राजनीति में एक झक सफेद, सच्चा और ईमानदार जनादेश अवतरित हुआ है बरास्ते चुनावी लोकतंत्र। वैसे ही लोकतंत्र के इस पांचवे स्तंभ का उद्धार करने कोई आएगा...आने वाला।आमीन!
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
चंद लोग हैं, जो पत्रकारिता के पेशे को मुनाफे और कमाई का जरिया बनाए जाने की आलोचना करते हैं। पुरजोर विरोध करते हैं। प्राजंल धर उन्हीं में से एक चिर-परिचित नाम है। तेज-तर्रार मीडियाविद् प्रांजल धर को मैं उनके मीडियावी तेवर की वजह से पढ़ता हूं, पसंद करता हूं और उनके लिखे पर हरसंभव प्रतिक्रिया देने की कोशिश करता हूं।
वर्तमान साहित्य के फरवरी, 2015 अंक में वे मौजूदा मीडिया के लूर-लछन पर अपनी कलम चलाते हैं। अपने स्वभाव के अनुरूप इसकी वैचारिक मज्ज़मत की है। वे मीडिया के वर्तमान रंग-ढंग, रवैए और पत्रकारीय चेतना से किए जा रहे खिलवाड़ को ग़लत मानते हैं। वह विभिन्न जनमाध्यमों में कार्यरत पत्रकारों की नई खेप को लक्ष्य कर उन पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हैं। ‘कैसे बदलाव हो रहे हैं मीडिया में’ शीर्षक से लिखे अपने आलेख में लिखा है-‘‘पत्रकारिता के पुराने स्तंभ ढह जरूर रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र में कोई नया या युवा स्तंभ दिखाई नहीं देता। यह बात निराशा पैदा करती है। ख़बरों की भरमार जरूर हुई है, पर उस तरीके की ख़बरों की जिसमें यह बताया जाता है कि फलां हीरोइन आजकल फलां हीरों के साथ ब्रेकअप के खतरनाक दौर से गुज़र रही है। या फिर फलां हीरों ने अपने सिक्स-पैक-एब्स गढ़ लिए हैं और फलां एक्ट्रेस ने अपनी कमर पौने तीन इंच कम कर ली है। इसी तरह के पत्रकारों की भीड़ बहुत है, पर दुर्भाग्यवश किसी भी पत्रकार में प्रभाष जोशी या वर्गीज जैसी चिंगारी दिखाई नहीं देती है।''
प्रांजल धर सही हैं अपनी जगह। लेकिन, जो सही लोग ग़लत जगहों पर सही तरीके से काम कर रहे हैं; क्या उनकी भूमिका कम है? क्या उनकी लड़ाई और कई स्तरों पर रोज-ब-रोज की जाने वाली जद्दोजहद कमतर है? क्यों सचाई का साफा बांधे 'सच और पूरा सच' दिखाने का दावा करने वाले लोग ग़लत हाथों और ताकतों के हाथों खेलने पर विवश हैं? प्रांजल धर को अपने पुराने आलेखागार का वह शीर्षक एक बार देखना चाहिए, जिसे उन्होंने माकुल ढंग से शब्दबद्ध किया है-‘जहां मीडिया खिलौना बन जाता है!’?
मित्र, आप जिस मीडिया के बदलते मिज़ाज और करतूतों को देख-सुन-पढ़ कर आहत और बेचैन हो रहे हैं; क्या आपने शब्द-दृश्य-ध्वनि की इस दुनिया में दाखिल होने वाले युवाओं के चेहरे-आवाज़, बोल-बर्ताव, विचार-चिंतन, कल्पना-स्वप्न आदि से यारी गांठा है; यदि हां, तो आप को यह बताने की जरूरत ही नहीं है कि पत्रकारों की नई युवा खेप वर्गीज कुरीयन, प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर, कमला प्रसाद आदि का ‘फाॅलोवर’ क्यों नहीं है? ‘5 W और 1 H’ पढ़कर आमुख लिखना सिखने वाली नई पीढ़ी को पत्रकार अथवा मीडियाकर्मी होने-बनने के कैसे और कितने मोहक-रंगीन सपने दिखाए जाते हैं; क्या आप इस सच को नकार सकते हैं? क्या आप कह सकते हैं कि पुण्य पसुन वाजपेयी और रविश कुमार से प्रभावित होकर स्वच्छ एवं साफ-सुथरी पत्रकारिता करने की आशा एवं विश्वास रखने वाली युवा पीढ़ी को पत्रकार अथवा मीडियाकर्मी होने का सुअवसर कुल जमा संघर्ष के बावजूद मिल जा रहा है? क्या आप अपने अनुभव और दिमाग पर जोर डालकर इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि भारत के नामी-गिरामी सरकारी-गैर-सरकारी मीडिया-संस्थानों से पत्रकारिता के गुर और दक्षता हासिल किए हुए लोगों को आसानी से मीडिया में सचेतन और जवाबदेह पत्रकारिता करने के लिए उपयुक्त जगह, सम्मानजनक पारिश्रमिक
और आवश्यक स्वतंत्रता प्रदान की जा रही है?
यदि ग़लत के विरोध करने के एवज में आपको हाशिए पर रखा जा रहा हो
या सक्रिय भागीदारी से वंचित कर दिया जा रहा हो
या आपको प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से लांछित-प्रताड़ित किया जा रहा हो,
तो आप किस तरह वर्गीज कुरीयन, प्रभाष जोशी और अन्यान्य पत्रकारीय महापुरुषों के महानतम कार्यों के रोशनी-पथ में जगमग-जगमग करने की चेष्टा, तबीयत और नियत रखेंगे?
उनके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ाने में अपना सर्वस्व होम कर देंगे?
ज़मीनी पत्रकारिता,विकास पत्रकारिता, स्वास्थ्य पत्रकारिता,
साहित्यिक पत्रकारिता, सांस्कृतिक पत्रकारिता आदि के प्रश्न से जूझेंगे; अपनी अलग राह बनाने के संकल्प और दृढ़विश्वास पर टिके रहेंगे; आदर्श पत्रकारिता की थपली बजाकर और महान मीडिया महानुभावों के आगे दंडवत हो कर हम-आप चाहे कोई यह आखिरकार कैसे साबित कर सकेगा कि मौजूदा पत्रकारीय ढर्रे को बदल सकने की हममें सामथ्र्य, हिम्मत, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति विद्यमान है?...
अर्थात् मीडिया-क्षेत्र में सच इतना भयावह है कि आपके बेबाक बात बोलने का ख़ामियाजा आप ही को भुगतना होगा; नौकरी से निष्कासन आप ही का होगा और आज के पूंजी-चरित्र के बल पर खड़ी की जा चुकी ताकतवर मीडिया-प्रतिष्ठानों से पंगा मोल लेने की एवज में जान तक गंवानी आप ही को पड़ेगी? आप खुद अपने उदाहरण से देखें, तो आप नीर-क्षीर-विवेक आलोचना कर सकने की स्थिति में हैं; क्योंकि आप मीडिया के मुख्य व्यवहार-क्षेत्र में नहीं हैं? यदि होते, तो आप भी शायद ही इस तरह की वैचारिकता से ओत-प्रोत आलेख लिख और प्रस्तुत कर पाते; अपने ही नाभिनाल को खरी-खोटी सुना पाते!
अतः जानिए की मीडियावी-अकादमिक सुअरपट्टी में इत्र-फुलेल बेचा जा रहा है; एक-दूसरे के देह को सुहराया जा रहा है; हंसी बेचने का कारोबार टेलीविज़न शो द्वारा हो रहा है; बेमतलब बकवास को स्क्रिप्ट कहकर ‘सोप ओपेरा’ में कैश कराया जा रहा है। आज स्वनियमन और आत्मानुशासन के नाम पर मीडिया जार-बेजार-बाज़ार बनती जा रही है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का संचार-उद्देश्य अपनी भद्द पिट जाने से परेशान है; लोग चिहुक रहे हैं; सिसक रहे हैं; चीख रहे हैं...और असमय मीडियावी मार से बेमौत मर रहे हैं; और मीडियावी आइने पर कमर्शियल ब्रेक ताबड़तोड़ जारी है। सबलोग भौचक्क, तमाशबीन और कूपमंडूक बने हुए हैं। घनघोर और बीहड़...स्पाइरल आॅफ साइलेंस। नतीजतन, संचार का हाइपरनिडिल थ्योरी खचाखच आंख में घोपा जा रहा है; कान में चुआया जा रहा है। तिस पर भी श्रोता, दर्शक और पाठकों को प्रतीक्षा है कि सचाई इसी रास्ते से ही आएगी! उनका यह भरोसा ठीक है; जैसे हाल ही में, राजनीति में एक झक सफेद, सच्चा और ईमानदार जनादेश अवतरित हुआ है बरास्ते चुनावी लोकतंत्र। वैसे ही लोकतंत्र के इस पांचवे स्तंभ का उद्धार करने कोई आएगा...आने वाला।आमीन!
सादर,
भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद
posted by issbaar @ 11:58 AM 0 Comments
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