‘आप’ तो बस निमित मात्र है!
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राजीव रंजन प्रसाद द्वारा योगेन्द्र यादव जी को प्रेषित चिट्ठी
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‘अगला लक्ष्य है पार्टी को राष्ट्रव्यापी बनाना।’(हिन्दुस्तान समाचार-पत्र; 12 फरवरी, 2015) |
आदरणीय मित्र योगेन्द्र यादव जी,
सावधान! यह शीर्षक खतरनाक, घातक और बेतुका है। आपने खुद हड़बड़ाहट और
बड़बोलेपन से बचने की ताक़ीद की है। हम आपके कहे पर भरोसा कर रहे हैं।
दरअसल, ‘आप’ को दिल्ली से बाहर पसरने या व्यापी होने की जरूरत नहीं है।
लोग ‘आप’ को अपने दायरे में भींच लेंगे। लोग यह खुद तय कर लेंगे कि
दिल्ली के भूगोल से निवार्सित जनसमाज किस तरह की जरूरीयात महसूस कर रहा
है? कैसे शासन-व्यवस्था और तंत्र की उन्हें आवश्यकता है? दिल्ली में ‘आप’
अपने को सयंमित-अनुशासित ढंग से, समावेशी सोच-विचार के साथ अमन और तरक्की
की राह अख़्तियार करे। मीडियी राग अलापने अथवा उसके मोहपाश में फंसने से
तत्काल बचे। आप सोना हैं और खरे सोना हैं; तो अपना रंग और असर छोड़िए;
बाकी काम जनता कर लेगी।
हमारी दिक्कत यह है कि हम जनता को वैद्य की भूमिका में स्वीकार नहीं करते
है, जो अपरिहार्य स्थिति में अपना माकुल इलाज कर सकती है। भारतीय जनमानस
ने कालक्रम की इतनी लम्बी परम्परा ऐसे ही नहीं तय की है। वह हर हाल-हालात
से गुजारी है। उतार-चढ़ाव देखें हैं। राजतंत्र से लेकर बाहरी आक्रमण, लूट
और विदेशी कब्जादारी को भी सहन किया है। लेकिन वह मूक, जड़ और स्थिरचित्त
कभी नहीं रही है। उसने प्रतिरोध रचा है। विद्रोह की आवाज़ बुलंद की है।
उसकी स्मृति में इतने महान जननायक और महापुरुष हुए हैं जिनसे वह आगे की
राह और दिशा पाती रही है।
अक्सर, हम संविधानिक लोकतंत्र और कानून को अधिक तवज्जों देते हैं; उसकी
आधुनिकता और प्रगतिशील प्रतिमानों को अधिक वैज्ञानिक एवं तर्कसम्मत मानते
हैं; लेकिन क्या कभी यह सोचा है कि जनता जब-जब बुरी स्थिति में फंसी
तो सबसे पहले उसे संविधान और उसके कानून ने दगा दिया है। हर मोड़ और हर
निगाह से ठगा है; उसे हर जगह बात-बेबात ज़लील किया है। वहीं उसकी
पारम्परिक मान्यता, संकल्पशक्ति और वैचारिक दृढ़ता ने अपनी सामूहिकता और
सहभागिता में सदैव एक जनज्वार को उत्पन्न किया है। ‘आप’ तो बस निमित
मात्र है। यदि जीत की मदहोशी में ‘आप’ अपना चारित्रिक भूगोल और वैचारिक
स्थिरांक भूल जाती है, तो इसमें जनता सौ-फीसदी निर्दोष होगी; लेकिन नहीं
बचेगी, तो ‘आप’।
सावधान! यह शीर्षक खतरनाक, घातक और बेतुका है। आपने खुद हड़बड़ाहट और
बड़बोलेपन से बचने की ताक़ीद की है। हम आपके कहे पर भरोसा कर रहे हैं।
दरअसल, ‘आप’ को दिल्ली से बाहर पसरने या व्यापी होने की जरूरत नहीं है।
लोग ‘आप’ को अपने दायरे में भींच लेंगे। लोग यह खुद तय कर लेंगे कि
दिल्ली के भूगोल से निवार्सित जनसमाज किस तरह की जरूरीयात महसूस कर रहा
है? कैसे शासन-व्यवस्था और तंत्र की उन्हें आवश्यकता है? दिल्ली में ‘आप’
अपने को सयंमित-अनुशासित ढंग से, समावेशी सोच-विचार के साथ अमन और तरक्की
की राह अख़्तियार करे। मीडियी राग अलापने अथवा उसके मोहपाश में फंसने से
तत्काल बचे। आप सोना हैं और खरे सोना हैं; तो अपना रंग और असर छोड़िए;
बाकी काम जनता कर लेगी।
हमारी दिक्कत यह है कि हम जनता को वैद्य की भूमिका में स्वीकार नहीं करते
है, जो अपरिहार्य स्थिति में अपना माकुल इलाज कर सकती है। भारतीय जनमानस
ने कालक्रम की इतनी लम्बी परम्परा ऐसे ही नहीं तय की है। वह हर हाल-हालात
से गुजारी है। उतार-चढ़ाव देखें हैं। राजतंत्र से लेकर बाहरी आक्रमण, लूट
और विदेशी कब्जादारी को भी सहन किया है। लेकिन वह मूक, जड़ और स्थिरचित्त
कभी नहीं रही है। उसने प्रतिरोध रचा है। विद्रोह की आवाज़ बुलंद की है।
उसकी स्मृति में इतने महान जननायक और महापुरुष हुए हैं जिनसे वह आगे की
राह और दिशा पाती रही है।
अक्सर, हम संविधानिक लोकतंत्र और कानून को अधिक तवज्जों देते हैं; उसकी
आधुनिकता और प्रगतिशील प्रतिमानों को अधिक वैज्ञानिक एवं तर्कसम्मत मानते
हैं; लेकिन क्या कभी यह सोचा है कि जनता जब-जब बुरी स्थिति में फंसी
तो सबसे पहले उसे संविधान और उसके कानून ने दगा दिया है। हर मोड़ और हर
निगाह से ठगा है; उसे हर जगह बात-बेबात ज़लील किया है। वहीं उसकी
पारम्परिक मान्यता, संकल्पशक्ति और वैचारिक दृढ़ता ने अपनी सामूहिकता और
सहभागिता में सदैव एक जनज्वार को उत्पन्न किया है। ‘आप’ तो बस निमित
मात्र है। यदि जीत की मदहोशी में ‘आप’ अपना चारित्रिक भूगोल और वैचारिक
स्थिरांक भूल जाती है, तो इसमें जनता सौ-फीसदी निर्दोष होगी; लेकिन नहीं
बचेगी, तो ‘आप’।
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