बात बोलेगी, हम नहीं!
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आपकी जाति से अधिक लम्बी मेरी नाक है, तो क्या इसे भी सवर्ण कहे!
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रहते,
तो गीदड़ और सियार प्रजाति के लोग अधिक हैं; लेकिन पता नहीं किस खुमारी और
हीनता-बोध में लोग इस विश्वविद्यालय के मुख्य गेट को ‘सिंह द्वार’ कहते
हैं। ज्ञान, विज्ञान, चिंतन, शोध आदि से जिनका तनिक न रिश्ता हो; अगर
उन्हें ही स्काॅलर, अध्यापक, प्राध्यापक आदि नाम हों, तो इस विडंबना को
क्या कहेंगे! यह बात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की हकीकत है। एक महानुभाव
को अपना पूरा नाम क्या बताया; वे प्रसाद कहने लगे। दिक्कत यह रही कि वे सब
को अपनी ही नस्ल का समझते थे। उसके बाद, ‘सौरी, राजीव जी!’, ‘भैया, माफ
कीजिएगा’, ‘सर! ग़लती हो गई!’
उफ्फ! जिन्हें अपनी ज़बान पर नियंत्रण नहीं है; वे खाम-खां बोलते क्यों हैं?
posted by issbaar @ 9:10 AM 0 Comments
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