Wednesday, March 18, 2015

शर्तिया सुरक्षा, पर क्यों?

18 मार्च को जनसत्ता में प्रकाशित विकास नारायण सिंह के आलेख ‘स्त्री-सुरक्षा की शर्तें’ पर राजीव रंजन प्रसाद द्वारा जनसत्ता को भेजी गईकी प्रतिक्रिया
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स्त्रियां आजादख्याल नहीं हो सकती। बिंदास-बेलौस बोल-वचन नहीं कह-सुन सकती। मर्दाना उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर मर्दों को गलियां या धिक्कार नहीं सकती। तो महानुभावजन, स्त्रियां कर क्या सकती हैं? ऐसी ही कुछ तफ्तीश करता आलेख ‘स्त्री-सुरक्षा की शर्तें’ शीर्षक से जनसत्ता(18 मार्च) में पढ़ा। विकास नारायण सिंह ने इस विषय की संवेदनशीलता को सही नाप के कपड़े दिखाएं हैं; वे कहते हैं-‘‘रोज सामने आने वाली यौन-हिंसा के विविध स्रोतों के अध्ययन से संभावित यौन अपराधी या संभावित यौन अपराधस्थल का कोई स्पष्ट खाका नहीं खींचा जा सकता।’’ स्त्रियों के साथ ऐसी दरिंदगी भरे करतूत को अंजाम देने वाले बलात्कारी प्रायः सिरफिरे, देहाती, निरक्षर, घोघा-बसंत, गंवार, शनकाह, उल्लू का पट्ठा, काला-कलूटा होते हैं। यदि आप ऐसा सोचते हैं, तो इस सोच को सही ठिकाने लगाइए। मेरी दृष्टि में, तो थाना और अदालत बलत्कृत स्त्री अथवा पीड़ित महिला के दुख को गाढ़ा करने का आगार हैं। वहां सामाजिक कुंठा की शिकार स्त्री देह की जगह ज़बानी पूछ-ताछ से असह्य पीड़ा झेलती है। ज़नाबे अली! ऐसे चोचलों की शासन-व्यवस्था और सुरक्षा किस काम की जो न्याय कम करता है; यातना सर्वाधिक देता है। हाल के दिनों में बीएचयू के घटनाक्रम साक्षी हैं, बाबा विश्वनाथ गवाह हैं कि प्रोफेसर जैसे ओहदे पर काबिज सुभिजनों ने परिसर की स्त्रियों के साथ कैसी घिनौनी हरकत की। क्या इन घटनाओं के अख़बार में छप जाने या ख़बरिया चैनल पर दिखा दिए जाने मात्र से स्याह सफेद हो जाएगा। क्या कुलगीत गाने से यह कुल-कलंक मिट जाएगा? जवाब दो हुक्मरानों! 

और घरेलू पहरेदार; क्या वे खुद इस तरह की अपराधिक गतिविधियों में रंगे हाथ नहीं पकड़े गए हैं? नहीं जानते, तो फिल्म ‘हाइवे’ देखिए। पता चलेगा कि शहरों की कारामाती ज़िन्दगी या महानगरों की चमचमाती सड़कों पर बड़े सलीके और बन-ठन कर चलने वाले पुरुषिया चेहरे भीतर से कितने घाघ और अनैतिक हैं। वे अपनी घरों में चाहारदिवारियां बड़े ‘हाइट’ की रखतें हैं; ताकि अन्दर की चीख-चीत्कार बाहर न आ सके; सामंती घरों के ढकोसले का सच उजागर न हो सके। स्त्री-उत्पीड़न के बाहरी मामले पर दिखावटी ‘कैंडिल मार्च’ निकालते लोगों को इस गुलाम मानसिकता के बारे में आखिर कौन बताए? 'खाप' और ‘आॅनर किलिंग’ के चर्चे, तब क्यों नहीं होते जब समाज में स्त्रियों का जीना मुहाल हो जाता है। वे हर दिन घुटन भरी अशालीन ज़िन्दगी जी रही होती हैं। उस समय तो कोई पितृसत्तात्मक समाज का पहरुआ अपने कपूत संतानों को मौत के घाट नहीं उतारता? उनका हुक्का-पानी बंद नहीं करता। घर से दर-ब-दर नहीं करता। सर जी! समाज की सारी सलाखें स्त्रियों के लिए हैं। सारी दश्वारियां उन्हीं के कपार पर है। उलाहना, प्रताड़ना और सही ढंग के परिधान-पोशाक पहनने को लेकर आलोचना उन्हीं की होती है; यह समाज अपने बदन-उघाड़ू नंगई पसारते बेटों की होश ठिकाने क्यों नहीं लगाते, जिनके इस ढंग के अजीबोगरीब ‘पिक‘स’ को माता-पिता सोशल साइटों पर ‘लाइक’ कर रहे होते हैं; सराह रहे होते हैं। यानी परिवार सारा शासनादेश स्त्रियों के खिलाफ जारी करता है जबकि अपने बिगड़ैल बेटों के किए पर परदा डालने के लिए ये ही ‘पैरेंट्स’ हरसंभव अध्यादेश जारी करते हैं।

थोड़ी बात, स्त्री-विमर्श की। स्त्री-चेतना के उन्मीलन एवं उद्विकास के नाम पर बौद्धिक-विमर्श स्त्री-निकटता प्राप्त करने का पुरुषवादी रवैया है। इस स्वांग में स्त्रियों को अपना मोर्चा ‘युद्धरत आधी आबादी’ सरीखा रखना होगा। उसे अपने तेवर और तरीके स्वयं ईजाद करने होंगे। उन्हें यह जानना होगा कि मिलीभगत अथवा साझेदारी के मार्फत घर-परिवार बसाया जा सकता है; लेकिन हक-हकूक की लड़ाई में अपना निशाना खुद लगाना होगा। अतः आज के देश-काल-परिवेश की स्त्री-सन्दर्भ में सबसे बड़ी जरुरीयात यही है कि स्त्री अपना विकल्प स्वयं बने। वह खुद अपना सही उत्तराधिकारी चुने। वह खुद तय करे कि उसका होना सबके होने की केन्द्रीय अन्तर्वस्तु है, नियामक और नाभिक है। लोकतंत्र में स्त्री ने अपने लिए माकुल जगह तलाश लिया, तो हम-आप-सब जो स्त्री के पक्षकार हैं, शुभचिंतक हैं...उसके आगे नतमस्तक-नतजानु होंगे। तब कोई बीबीसीनुमा उडविन डाॅक्यूमेंट्री बनायेगा, तो किसी की मजाल न होगी की उस अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर दे। यानी स्त्री सशक्तीकरण का सच्चा लोकराग स्त्रियों को स्वयं छेड़ना है, राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करना है। इस दुनिया में ‘आधी आबादी’ की शब्दावली में नहीं पूरी जगतजननी बन छा जाना है।

और नेताओं की बात। भारत में नेता-परेता इतने दुत्तलछन हैं कि उन्हें अपनी आंख में आंसू लाने के लिए भी ‘टाइमिंग’ की खोज होती है और किसी संवेदनशील मुद्दे पर सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए भी उम्दा जनमाध्यम की जरूरत। वे सांपनाथ और नागनाथ की तरह अपनी ही केंचुल में पेनाहे रहते हैं और हमेशा इस-उस ताक में रहते हैं जिससे कि उनका स्वार्थ सधे; राजनीतिक गोटी बीस पड़े। ऐसे कापुरुषों से यह उम्मीद रखना कि वे भारत में स्त्री-सुरक्षा के पक्ष में कुछ सार्थक परिणाम दे पाएंगे, बेमानी है। तो विकल्प एक सीधा-सादा यह है कि स्त्रियां अपना जनाधार और जनबल स्वयं तलाशे। वे किसी भी स्थिति में स्त्री उम्मीदवार को ही अपना जनाधिकार सौंपे। यानी जब तक भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश और सामंतशाही समाज में स्त्री-नेतृत्व का अपना अलग राग, स्वर, मांग, संघर्ष और राजनीतिक मोर्चा नहीं होगा; स्त्री सुरक्षा की शर्तें महज ढोंग है, छलावा है, पाखंड है, धोखा है। 
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राजीव रंजन प्रसाद, शोध-छात्र, हिन्दी विभाग, बीएचयू, वाराणसी।

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