Friday, February 27, 2015

भारत में अकादमिक शोध: भाषा के बरास्ते शब्द-पद-वाक्य-सन्दर्भ-उद्धरण पसाने-परोसने का कागजी क्रिया-कर्म

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शोध-पत्र
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राजीव रंजन प्रसाद
स्पीक-कल्ट के तत्त्वाधान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया परचा

प्रिय मित्रो...,

मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि आप सबका भारत में किए जाने वाले अकादमिक शोध में दिलचस्पी है। अभी अमेरिका की स्काॅलर मैडिना ने अपना परचा पढ़ा। वह बनारस के शब्द, पद और शब्दावलियों के बनावट-बुनावट और लोकगत अर्थ-अभिप्रायों पर अपनी शोधपरक बातें रख रही थीं। शुक्र है, हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख जाने के बाद वह अब बनारसी गाली तक धड़ल्ले से देने लगी हैं; यह उनकी अदा है, अभिव्यक्ति का अपना अंदाज, जिसमें सबकुछ बेलाग-बेलौस था; किन्तु अश्लील और फुहड़ हरगिज़ नहीं। उन्होंने अपना परचा हिंदी में पढ़ा यह हमारे लिए गहरे तोष का विषय है। उनका इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त करना कि भारत में हिंदी बोलने वाले लोग अधिक हैं; पर विद्यालय अंग्रेजी के अधिक क्यों हैं? सचमुच यह हैरान कर देने वाला प्रश्न है। उनका बड़े हल्के अंदाज में यह कहना कि बनारस के संन्यासी भी ‘आई लव यू’ अंग्रेजी में कहना चाहते हैं; लेकिन अपनी भाषा में सहज-स्वाभाविक-नैसर्गिक प्रेम से वे औरों को सर्वथा वंचित रखने में ही जुटे रहते हैं। यह भी प्रश्न मन को बुरी तरह मथने वाला है।

मैडिना ने भारत में शोध की अकादमिक स्थिति के बारे में और जानने की इच्छा व्यक्त की है, तो इस सम्बन्ध में मैं शुरू में ही कह देना चाहता हूं कि आप दुःखी होंगी यदि मैं थोड़े व्यंग्यार्थ में यह कहूं कि यहां अकादमिक घोड़े बछिया पालते हैं; ताकि वे दूध पी सके और तंदुरुस्त रह सके, तो आपसबों को अप्रत्याशित ढंग से बेतहाशा हंसी आएगी और आपमें से कुछ मुझे बौड़म भी करार देंगे। खैर!

भारत में चिंतन-परम्परा अवनमन कोण में घटित होता है। अर्थात् उच्च-मूल्य से निम्न-मूल्य की ओर। यह आत्मप्रकाश अन्दर से बाहर की ओर रुख करता है, भाषा में प्रकट होता है। लेकिन वह जहां यानी हमारे मनोजगत यानी मनोमस्तिष्क में जन्म लेता है; वहां अनुभूतिजन्य भाव-संवेदना भीतरी उत्क्रमण द्वारा स्फोट के माध्यम से अर्थ निर्मित करते हैं; स्वर-तंत्रिकाएं उन्हें वागेन्द्रियों के माध्यम से भाषा के सांचे अथवा रूप में ढालती हैं; शब्दों के माध्यम से रूपाकार करती हैं; और अंत में वाक्यों में पिरोकर शब्दार्थ-दृष्टि से उन्हें पूर्णता प्रदान करती हैं। इस तरह हमारे आधुनिक भाषा-चिन्तकों और मानव-विज्ञानियों का मानना है कि व्यक्ति-मूल्य और सामाजिक-मूल्य में आवयविक सम्बन्ध है। इन्हें विकसित करने के लिए केवल साहस ही नहीं,; स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और स्पष्ट विचारधारा के लिए कोशिश आवश्यक है। सुविधामूलक लक्ष्यहीन अवसरवाद से मनुष्य का हित संभव नहीं है। ‘नया मूल्य’, ‘नवीन-मानव’ कहने मात्र से नयापन उपस्थित हो जाए, कतई संभव नहीं है। अतः आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है-पुराने के प्रति और नये के प्रति अवसरवादी दृष्टि ख़त्म की जाए। मुक्तिबोध की यह बात मैं बल देकर भारतीय अकादमिक जगत के बारे में कहना चाहूंगा जहां इस अवसरवादिता का आलम यह है कि सभी दृष्टांध हैं; लेकिन स्वयं को विश्वद्रष्टा घोषित करने में अहर्निश जुटे हैं; अधिसंख्य सफल हैं और कुछ पिच्छलग्गू सफल हो जाने की कगार पर हैं। 

भारत में ज्ञान का मूल लक्ष्यार्थ पुराने समय में रहा है-मनुष्य की मंगलकामना, उसकी हित-साधना। आज ज्ञान का अवलम्ब है-लोगों को मूढ़ बनाए रखना और उनकी मुर्खता के एवज में उनके हक-हकूक पर अपना अधिनायकत्व या एकाधिकायर कायम-काबिज करना। यह सब सायास हुआ है। मनुवादी जातियों ने ढेला भर मेहनत नहीं कि लेकिन गंगा नहाए, पुते फले वही। रामराज्य उनके ही घर-आंगन में आया। धन-धान्य से समृद्ध वही हुए। भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी जाति देखकर बनाए-चुने जाते हैं। यह अहमन्यता भारत की सामन्तशाही का शिकार रही सवर्ण जातियों में आज भी गहरे पैठी हुई है। यही लोग जब चुनाव के मौके पर आमजन के बीच जाते हैं; चुनावी दौरे या जन-सम्पर्क पर निकलते हैं, तो इनकी सदाशयता देखिए। ये उन जातियों के आगे भी चूकर-लोटकर पलगी/दुआ-सलाम करते हैं जिन्हें वे बाप-राजे से दुत्कारते और दरकिनार करते आए हैं।

भारत में झूठ बोलना पेशा से अधिक कला है। ऐसी कला जिसमें जादू, चमत्कार, सम्मोहन वगैरह होते हैं। आजकल भारत में चुनी गई सरकारें यह मान बैठी है कि अन्तरराष्ट्रीय जगत के लोग इतने बेवकूफ और बुद्धिहीन हैं कि उन्हें आसानी से अपने झांसे में लिया जा सकता है। इसी अवधारणा को आधार बनाकर भारत में एनजीओ का कारोबार तेजी से फला-फूला। इन्होंने अकादमिक शोध के समानान्तर जन-शोध और समाज-शोध करना शुरू किया। ये धीरे-धीरे ज्ञान के सभी अनुशासनों में फैले। आज आलम यह है कि विश्वविद्यालय का विद्याार्थी एनजीओ के सर्वे पर अपना शोध-प्रबन्ध लिखता है। उसकी अपनी प्रश्नावली शोध-परिकल्पना, उद्देश्य से बाहर है। अतः अकादमिक शोध भारत में एक कागजी कार्रवाई है। यह दीमकों को दिया जाने वाला दावत है। 

पिछले ही वर्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने लगभग चालीस हजार विज्ञान की किताबें जो स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण थीं; हिन्दी में अनूदित और प्रकाशित थीं; सिर्फ इस चलते एक सीलन-भरे गोदाम में दबाए रखा कि विज्ञान का ज्ञान निम्न जातियों तक पहुंच जाएगा, तो अनर्थ हो जाएगा। साठ के दशक में प्रकाशित इन पुस्तकों को इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में इसलिए अंततः निकाल-बाहर किया गया कि हिन्दी विभाग के उस हाॅलनुमा कमरे में एक साइबर-यूनिट स्थापित करना था; ताकि विश्वविद्यालय के विद्याार्थी पूरी दुनिया से जुड़ सकें। यह दोहरा बत्र्ताव उंची जातियां हमेशा अपने फायदे के हिसाब से करती हैं। उन किताबों को महीने भर मुफ्त में बांटा गया; ट्रैक्टर से एक से दूसरे जगह खुले में ले जाया गया। भार में इस तरह होते हैं अकादमिक ज्ञान का सृजन-विसर्जन।....


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(गल्प का कायाकल्प)

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